जियो और जीने दो का भाव

फौजिया रियाज स्वतंत्र टिप्पणीकार धर्मनिरपेक्षता वाकई निरपेक्षभाव से आस्तिकों और नास्तिकों को साथ में फलने-फूलने का मौका देती है. इसलिए कट्टरता की गोलियों पर सांस लेनेवाली पार्टियां समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता को कभी स्वीकार नहीं कर सकतीं. समाज में धर्म की सत्ता और अहमियत को झुठलाया नहीं जा सकता. किसी भी देश में फैसले बहुमत के […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | February 13, 2015 5:48 AM

फौजिया रियाज

स्वतंत्र टिप्पणीकार

धर्मनिरपेक्षता वाकई निरपेक्षभाव से आस्तिकों और नास्तिकों को साथ में फलने-फूलने का मौका देती है. इसलिए कट्टरता की गोलियों पर सांस लेनेवाली पार्टियां समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता को कभी स्वीकार नहीं कर सकतीं.

समाज में धर्म की सत्ता और अहमियत को झुठलाया नहीं जा सकता. किसी भी देश में फैसले बहुमत के हाथों ही होते हैं. नास्तिकता बढ़ी है, लेकिन उतनी ही तेजी से सांप्रदायिकता भी उपजी है. समझनेवाली बात यह है कि इन दोनों के बीच अगर कुछ घुटा है, तो वह है सेक्युलरिज्म यानी धर्मनिरपेक्षता. किसी भी लोकतांत्रिक समाज या देश के लिए धर्मनिरपेक्षता खाद का काम करती है.

पिछले दिनों अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने सभ्य अतिथियों की तरह भारत से लौट कर कहा कि, ‘पिछले कुछ वर्षो में कई मौकों पर दूसरे धर्म के अन्य लोगों ने सभी धर्मो के लोगों को निशाना बनाया है, ऐसा सिर्फ अपनी विरासत और आस्था के कारण हुआ है. इस असहिष्णु व्यवहार ने भारत को उदार बनाने में मदद करनेवाले गांधीजी को स्तब्ध कर दिया होता’. भाजपा विरोधियों ने ओबामा के बयान को प्रधानमंत्री मोदी की खिंचाई के लिए इस्तेमाल किया. गणतंत्र दिवस पर आये ओबामा के वापस अमेरिका लौटते ही आये इस बयान को मोदी की पीठ में छुरे की तरह भी देखा जा रहा है. खिंचाई! चुनाव और राजनीतिक माहौल में कहीं एक जरूरी बात की महत्ता कम तो नहीं हो रही?

पिछले दिनों दिल्ली के वसंत कुंज इलाके में एक चर्च पर हमला हुआ. हमले के विरोध में लोगों ने नयी दिल्ली में प्रदर्शन किया. यह प्रदर्शन अहम था, क्योंकि पिछले दो महीने में दिल्ली में घटनेवाली यह पांचवीं घटना थी. दिलशाद गार्डन, जसोला, रोहिणी और विकासपुरी के चर्च इससे पहले हमले ङोल चुके हैं.

लगातार हमलों के बाद भी अब तक प्रधानमंत्री की तरफ से कोई आश्वासन नहीं आया है, ऐसे में जाहिरी तौर पर इसाई समुदाय असुक्षित महसूस कर रहा है. पिछले आठ महीनों में देश भर में भाजपा नेताओं के भड़काऊ भाषण आम हो गये हैं. एक तरफ ‘एआइबी टीम’ के एक वीडियो पर अश्लीलता का तमगा लगा कर उसे यू-ट्यूब से हटाने पर मजबूर किया जाता है. दूसरी तरफ लोकसभा में बैठे सांसदों की अश्लील भाषा पर कोई सुध ही नहीं लेता. चुप्पी अकसर हामी का काम करती है. सरकार को तय करना है कि समाज में शांति बनाये रखने की जिम्मेवारी किसकी है? इंटरनेट पर मौजूद किसी वीडियो की या जनता का प्रतिनिधित्व करनेवाले नेताओं की.

याद होगा, एक महीने पहले शार्ली हेब्दो हमले का समर्थन करते हुए बीएसपी नेता हाजी याकूब कुरैशी ने हमलावरों को 51 करोड़ की इनामी राशि देने का प्रस्ताव रखा था. जब आप हिंसा की किसी एक घटना को सही ठहराते हैं, तो न चाहते हुए भी आप दुनिया के हर कोने में होनेवाली हिंसा का समर्थन करते हैं.

महात्मा गांधी कहते थे, ‘मैं हिंसा का विरोध करता हूं, क्योंकि अस्थायी रूप में इसके परिणाम अच्छे लग सकते हैं, पर इससे होनेवाली हानि स्थायी होती है’. आज यदि गांधी होते, तो उन्हें वाकई सांप्रदायिकता में रंगता भारत कभी नहीं जंचता. ओबामा ने भारत की सही नब्ज पकड़ी है. वैसे उन्होंने गांधी की आत्मा के साथ ही मार्टिन लूथर किंग की आत्मा के बारे में भी थोड़ा सोचा होता, तो पिछले दस साल में दुनिया की सूरत भी अलग होती.

‘एक जगह हो रहा अन्याय, हर जगह के न्याय पर खतरा है’- यह मार्टिन लूथर किंग जूनियर का मानना था. ओबामा अपने राज में कुछ भी करें, इससे उनकी भारत पर की गयी टिप्पणी झूठ साबित नहीं होती, लेकिन हां बात हल्की जरूर हो जाती है.

भारत की नींव धर्म-निरपेक्षता पर खड़ी है. केंद्र की भाजपा सरकार भले ही सरकारी विज्ञापनों से ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द हटा ले, महाराष्ट्र में भाजपा को समर्थन दे रही शिवसेना भले ही समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष शब्द को संविधान से ही हटाने की मांग करे, चाहे यह कितना भी घिसा-पिटा फॉमरूला हो, लेकिन भारत की मिट्टी में सहिष्णुता और संवेदनशीलता मिली हुई है. यहां गुटों में बंटे, समूहों में खड़े लोग सिर्फ लड़ते नहीं हैं, बल्कि वक्त पड़ने पर एक-दूसरे का साथ देते हैं और खिलखिला कर एक-साथ हंसते भी हैं.

समाजवाद में विकास का मतलब बड़ा-सा पुल बना देना, सड़कों को चमका देना नहीं होता. समाजवाद के कई पहलू हैं. जैसे साथ चलना और बिना धार्मिक, जातीय, आर्थिक या लैंगिक भेदभाव के सभी को बराबर अवसर प्रदान करना. ठीक उसी तरह धर्मनिरपेक्षता का मतलब धर्म के विषय पर लोगों के मुंह पर ताला लगा देना नहीं होता है. धर्मनिरपेक्षता का मतलब सभी विश्वासों और मान्यताओं के लिए बराबर सम्मान तो है ही, साथ ही यह धर्म या मान्यताओं पर शंका करनेवालों को भी समेटता है.

धर्मनिरपेक्षता वाकई निरपेक्षभाव से आस्तिकों और नास्तिकों को साथ में फलने-फूलने का मौका देती है. इसलिए कट्टरता की गोलियों पर सांस लेनेवाली पार्टियां समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता को कभी स्वीकार नहीं कर सकतीं, क्योंकि समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता का मूल-भाव ‘जियो और जीने दो’ है.

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