खौफ के साये में जीना मजबूरी क्यों?
आम तौर पर हमारे देश में किशोरियों को सदा अस्मत और चरित्र को बचाये रखने की नसीहतें दी जाती हैं. कहा यह जाता है कि इन दोनों के खोने से उनका जीवन कलंकित हो जायेगा. खुद को कलंकित होने से बचाने के लिए इन्हें बचाये रखाना होगा. समाज और बड़े-बुजुर्गो की इस नसीहत के बाद […]
आम तौर पर हमारे देश में किशोरियों को सदा अस्मत और चरित्र को बचाये रखने की नसीहतें दी जाती हैं. कहा यह जाता है कि इन दोनों के खोने से उनका जीवन कलंकित हो जायेगा. खुद को कलंकित होने से बचाने के लिए इन्हें बचाये रखाना होगा. समाज और बड़े-बुजुर्गो की इस नसीहत के बाद देश की ज्यादातर महिलाएं हमेशा खौफ के साये में जीवन जीने को मजबूर हो जाती हैं. उन्हें हमेशा यह डर सताता रहता है कि कहीं उनका व्यक्तित्व दागदार न हो जाये.
इसका दूसरा पहलू यह भी है कि चरित्र हनन से खुद को बचाने के चक्कर में महिलाएं पारिवारिक और सामाजिक शोषण का शिकार भी होती हैं. सालों साल शोषण के शिकार होने के बावजूद वे अपने दुख को घर की दीवारों से बाहर नहीं निकलने देतीं. हर किसी भी परिस्थिति में वह अपने दामन को दागदार नहीं होने देना चाहतीं. उन्हें हमेशा यही डर सताता रहता है कि उनका मुंह खोलने का मतलब दामन पर बदनुमा दाग के बराबर है. वहीं, हमारा पुरुष प्रधान समाज नारी और युवतियों को नीचा दिखाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ता. किसी नारी से वैमनस्यता साधने के लिए उसके चरित्र पर लांछन लगा दिया जाता है.
किसी को कुलटा कह कर समाज से तिरस्कृत कर दिया जाता है, किसी पर कोई और आरोप मढ़ दिया जाता है. यह हमारे समाज की सीमित सोच का नतीजा है. वहीं, जब कोई पुरुष महिलाओं से भी ज्यादा कर गुजरता है, तो उस पर कोई अंगुली भी नहीं उठायी जाती. आखिर देश में आधी आबादी के साथ ऐसा बर्ताव क्यों किया जाता है? किसी युवती या फिर महिलाओं के व्यक्तित्व के मूल्यांकन उसके चरित्र का आकलन करना उचित है? उन्हें खौफ के साये में जीने को क्यों मजबूर किया जा रहा है.
चंदा साहू, देवघर