अंधश्रद्घा की खबरें शेष दुनिया में हमारी कैसी छवि बनाती होंगी, इसका अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है. जाहिर है, बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में सपेरों का देश होने की भारत की जो छवि पश्चिम में विद्यमान थी, उससे निश्चित ही कोई अलग छवि नहीं बनती होगी.
भारत में समुदाय आधारित विभेद और वैज्ञानिक चिंतन का अभाव अर्थात् अंधश्रद्धा का बोलबाला उत्तर से दक्षिण तक एक जैसा नजर आता है. पिछले दिनों खबर आयी कि तेलंगाना के मुख्यमंत्री केसी राव और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने वास्तु शास्त्र- जिसकी वैज्ञानिकता भी संदिग्ध है- के नाम पर ‘शैतानी प्रभावों’ से मुक्ति के लिए अपने-अपने राज्यों के खजाने से करोड़ों रुपये खर्च किये हैं. ध्यान रहे, चंद्रबाबू नायडू पहले ऐसे मुख्यमंत्री हैं, जिन्होंने कैबिनेट बैठकों के लिए आइपैड की व्यवस्था करवायी थी. केसी राव भी आधुनिक दौर के प्रशासक माने जाते हैं. इसके बावजूद दोनों का वास्तुशास्त्र के प्रति सम्मोहन अजीब लगता है.
वास्तुशास्त्र के प्रति इन दोनों का सम्मोहन पिछले दिनों चर्चा में तब आया, जब केसी राव ने कैबिनेट मीटिंग के बाद ऐलान किया कि तेलंगाना राज्य सचिवालय वास्तुदोष से ग्रस्त है और तय किया है कि एरागडा स्थित सरकारी अस्पताल की जगह पर उसे प्रतिस्थापित करेंगे. इतना ही नहीं केसी राव की अनौपचारिक सलाह पर चंद्रबाबू नायडू ने भी राजधानी निर्माण की अपनी योजना में बदलाव किया है. इस पर विपक्षी पार्टियों ने केसी राव के फैसले की तीखी आलोचना की है और कहा है कि यह सब रियल एस्टेट मालिकों के फायदे के लिए किया जा रहा है. इसके पहले भी दोनों मुख्यमंत्री ऐसे विवादों में आ चुके हैं.
अंधश्रद्धा, झाड़-फूंक आदि के प्रति सम्मोहन सिर्फ तेलंगाना एवं आंध्र प्रदेश के मौजूदा मुख्यमंत्रियों तक सीमित नहीं है. पिछले दिनों सेना के लिए हथियार-उपकरण विकसित करनेवाले संगठन- डीआरडीओ, जहां अग्रणी वैज्ञानिक तैनात हैं- इसलिए सुर्खियों में रहा, क्योंकि पता चला कि अपने कीमती संसाधनों से वह एक रथ के निर्माण में जुटा था, जो किसी मंदिर में चढ़ावे के लिए बना था. इस रथ से जुड़ा यह प्रसंग तब सामने आया, जब उपरोक्त संस्थान से संबद्ध एक अग्रणी वैज्ञानिक द्वारा डाली गयी याचिका को मुंबई हाइकोर्ट ने पहली नजर में काबिले-गौर समझा. डीआडीओ से संबद्ध एक वरिष्ठ अधिकारी के निर्देश पर इस रथ का निर्माण इसलिए किया गया, क्योंकि ‘वारी’ नाम से मशहूर पुणो के पास स्थित आलंदी से पंढरपुर जानेवाली हजारों लोगों की पैदल धार्मिक यात्र में पिछले साल दुर्घटना में एक बैल की मौत हो गयी थी.
एक सेक्युलर मुल्क के रक्षा विभाग की तरफ से वित्त मंत्रलय की अनुमति के बिना खालिस आस्था संबंधी कारणों से डीआरडीओ द्वारा बनाया गया रथ हो या सूचना तकनीकी के प्रयोग में अग्रणी हैदराबाद/ साइबराबाद के पास मुख्यमंत्री को ‘संकट’ से निजात दिलाने के नाम पर आयोजित यज्ञ हो या मुख्यमंत्री रह चुके एक सांसद का संसद में यह कथन हो कि ‘लाखों साल पहले हमने ही नाभिकीय परीक्षण को अंजाम दिया’ या ‘ज्योतिष सबसे बड़ा विज्ञान है’, ऐसा लग सकता है कि 21वीं सदी में जब भारत विश्व में महाशक्ति बनने का दावा कर रहा है, हमारे यहां अतार्किकता, वैज्ञानिक चिंतन से इनकार की बाढ़ आयी हुई है.
आधुनिकता के इस दौर में ऐसी खबरें शेष दुनिया में हमारी कैसी छवि का निर्माण करती होंगी, इसका अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है. जाहिर है, बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में सपेरों का देश होने की भारत की जो छवि पश्चिम में विद्यमान थी, उससे निश्चित ही कोई अलग छवि नहीं बनती होगी, भले ही लोग खुलेआम ऐसा कहने से संकोच करते हों.
भारतीय संविधान की धारा 51 ए मानवीयता एवं वैज्ञानिक चिंतन को बढ़ावा देने में सरकार के प्रतिबद्ध रहने की बात करती है. एसआर बोम्मई मामले में सुप्रीम कोर्ट ने धर्मनिरपेक्षता की व्याख्या कर कुछ संदेह भी दूर किये थे, जिसके अनुसार धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है कि ‘राज्य का कोई धर्म नहीं होगा, राज्य सभी धर्मो से दूरी बनाये रखेगा और राज्य किसी धर्म को बढ़ावा नहीं देगा, न ही राज्य की कोई धार्मिक पहचान होगी’. यदि हम अपने आसपास देखें, तो पता चलता है कि संविधान की हमारी प्रतिबद्धताएं और जमीनी हकीकत के बीच का अंतर बेहद चिंतनीय है.
अभी हमें इस दिशा में कितनी दूरी तय करनी है, यह तब देखने को मिला था, जब कुछ माह पहले यह उजागर हुआ कि अंधश्रद्धा निमरूलन के लिए ताउम्र संघर्ष करनेवाले डॉ दाभोलकर के हत्यारों को पकड़ने के लिए पुलिस ने काला जादू और झाड़-फूंक करनेवालों का इस्तेमाल किया था. गौरतलब है कि यह डॉ दाभोलकर एवं उनके संगठन की व्यापक मुहिम का ही नतीजा था कि महाराष्ट्र विधानसभा को अंधश्रद्धा निमरूलन विधेयक पास करना पड़ा था और ऐसा करनेवाला महाराष्ट्र पहला राज्य बना था. लेकिन, हमारी पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी उन्हीं धाराओं का उल्लंघन करके दाभोलकर के कातिलों को ढूंढ़ रहे थे.
सुभाष गाताडे
सामाजिक कार्यकर्ता
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