हे लोक -जन! अब तो जागो
* खास पत्र ।। अरुण मलुआ ।। (रांची) मानव समाज व्यवस्था के प्राकृतिक नियमों के अनुसार, आज हम आदिम साम्यवाद से चलकर जन–युग, दासता, सामंतवाद, साम्राज्यवाद–पूंजीवाद से होते हुए इस महान लोकतांत्रिक व्यवस्था तक पहुंच चुके हैं जिसे ‘जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा शासन’ कहा जाता है. इसमें संविधान और न्यायपालिका का […]
* खास पत्र
।। अरुण मलुआ ।।
(रांची)
मानव समाज व्यवस्था के प्राकृतिक नियमों के अनुसार, आज हम आदिम साम्यवाद से चलकर जन–युग, दासता, सामंतवाद, साम्राज्यवाद–पूंजीवाद से होते हुए इस महान लोकतांत्रिक व्यवस्था तक पहुंच चुके हैं जिसे ‘जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा शासन’ कहा जाता है. इसमें संविधान और न्यायपालिका का स्थान सर्वोपरि है.
संविधान में आम और खास, सभी नागरिकों के समान अधिकार और कर्तव्य निर्धारित हैं. प्रहरी के रूप में न्यायपालिका निष्पक्ष भाव से इसकी रक्षा करता है. कार्यपालिका लोक कल्याण के कार्यक्रमों को धरातल पर उतारती है. इसमें विधायिका एक महत्वपूर्ण शाखा है, जिसमें लोक द्वारा चुने गये प्रतिनिधियों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे लोकसेवा में लोक कल्याणार्थ सभी आवश्यक कदम उठायेंगे.
संविधान व न्यायपालिका की बात तो छोड़िए, वर्तमान स्थिति तो यह है कि प्रतिनिधि माननीय बनते ही एक अलग जाति का निर्माण करने लगे हैं, जिसका एकमात्र उद्देश्य सत्ता और संपत्ति पर एकछत्र कब्जा जमाना रह गया है. चहुंओर हर स्तर पर भ्रष्टाचार से सराबोर समाज में लोक –जन की स्थिति निरीह बन कर रह गयी है. हालत यह है कि विकल्प के तौर पर स्वच्छ छवि के जनप्रतिनिधियों का अकाल पड़ गया है या फिर उपरोक्त जाति के माननीयों ने व्यवस्था ही ऐसी बना दी है कि उनके घेरे में पहुंचते ही कोई भी उसी रंग में रंग जाता है.
क्या सत्ता पक्ष, क्या विपक्ष, क्या दक्षिणपंथी, क्या वामपंथी, सभी उसी भ्रष्ट जाति में अंतर्लीन हो रहे हैं. अत:, हे लोक–जन! अब तो जागो. अपनी शक्ति को पहचानो, व्यवस्था परिवर्तन पर कुछ चिंतन करो. हालात सुधरे, इसका उपाय करो. कब तक बेबसी में ‘शिकारी आयेगा, जाल बिछायेगा’ का जाप करते रहोगे?