पुण्य प्रसून वाजपेयी,वरिष्ठ पत्रकार
समूचे प्रकरण में जो दिखाई नहीं दे रहा है, वही सबको डरा रहा है या फिर नये समीकरण बना रहा है. नीतीश ने लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी की बंपर जीत की वजह से कुर्सी छोड़ी थी. लालू प्रसाद और नीतीश कुमार एक हो गये, तो वजह मोदी ही रहे. और अब जीतन राम मांझी अगर नीतीश के रिमोट से चलने से इनकार कर चुके हैं, तो वजह दिल्ली में बैठी मोदी सरकार की सियासी स्क्रिप्ट ही रही है. तो क्या कल विधानसभा में भी नरेंद्र मोदी का ‘भूत’ ही रेंगेगा?
भारतीय राजनीति में कल यह पहली बार होगा, जब कोई राज्यपाल जिस सरकार का लिखा पर्चा पढ़ेंगे, उस सरकार का भविष्य एक घंटे के बाद तय होगा कि वह सत्ता में रहेगी भी या नहीं. यानी बिहार का सत्ता-संघर्ष एक ऐसे मुहाने पर आ खड़ा हुआ है, जहां राज्य के लिए सरकार की उपलब्धि और भविष्य को लेकर उसका नजरिया दोनों ही कटघरे में हैं और इस कटघरे को ही राज्यपाल अभिभाषण के तौर पर समूचे राज्य को सुनायेंगे. दिलचस्प यह भी है कि अगला मुख्यमंत्री कौन होगा, इससे ज्यादा नजरें इस बात पर आ टिकी हैं कि मुख्यमंत्री के साथ कौन-कौन खड़ा होगा और जो खड़ा होगा, उसका राजनीतिक भविष्य क्या होगा?
इस घटनाक्रम पर निगाहें सिर्फ पटना की ही नहीं, दिल्ली की भी टिकी हुई है. दूसरी ओर, अरसे बाद बिहार में सरकार को लेकर जनता की रुचि इसलिए जागी है, क्योंकि उसने जिसे चुना, उसका दूसरी बार बंटवारा हो रहा है, जिसे नहीं चुना, वे भी दूसरी बार सत्ता के लिए एकजुट हो रहे हैं. ऐसे में विधानसभा से बाहर सड़क-नुक्कड़ पर यह सवाल बड़ा हो चला है कि आगामी विधानसभा चुनाव के वक्त कौन किसके साथ होगा, और कल विधानसभा में सरकार बचाने या गिराने के खेल से इसका जवाब कुछ हद तक साफ हो जायेगा.
साढ़े चार बरस पहले बिहार की जनता ने नीतीश कुमार के जदयू को भाजपा के साथ समर्थन दिया था. विरोध लालू प्रसाद को लेकर था. लेकिन, 2015 के विधानसभा चुनाव में कदम रखने से ऐन पहले जदयू का एक धड़ा भाजपा से मिलने को उतारू है, तो दूसरा धड़ा राजद यानी लालू के साथ खड़ा है. तो फिर विधानसभा के भीतर कुर्सी के लिए जो कुछ भी होगा, उससे बिहार के मतदाताओं का लेना-देना होगा क्या?
ध्यान दें, तो इस समूचे प्रकरण में जो दिखाई नहीं दे रहा है, वही सबको डरा रहा है या फिर नये समीकरण बना रहा है. नीतीश ने लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी की बंपर जीत की वजह से कुर्सी छोड़ी थी. लालू प्रसाद और नीतीश कुमार एक हो गये, तो वजह मोदी ही रहे. और अब जीतन राम मांझी अगर नीतीश के रिमोट से चलने से इनकार कर चुके हैं, तो वजह दिल्ली में बैठी मोदी सरकार की सियासी स्क्रिप्ट ही रही है. तो क्या कल विधानसभा में भी नरेंद्र मोदी का ‘भूत’ ही रेंगेगा? और मांझी रहें या जायें, या फिर मांझी के बाद नीतीश को शहीद न होने दिया जाये, इस स्क्रिप्ट को कोई पुख्ता तरीके से लिख सकता है, तो वह दिल्ली ही हो सकती है.
लेकिन, बिहार में अगर यह सारा संघर्ष सिर्फ सत्ता के लिए हो रहा है, तो फिर विधानसभा पार्ट वन होगा, क्योंकि पार्ट टू की तैयारी तो लालू को भी करनी है और नीतीश कुमार को भी. नरेंद्र मोदी की भाजपा को हराने के लिए नीतीश-लालू एक हो सकते हैं, लेकिन पार्ट टू के बाद का मुख्यमंत्री बनने के लिए लालू और नीतीश में से किसे कौन आगे बढ़ने देगा, यह लाख टके का सवाल है.
इसलिए इसका पार्ट-टू भी खासा दिलचस्प होगा. बिहार के जातीय समीकरण को समङों, तो भाजपा के लिए जहां आज मांझी जरूरत हैं, वहीं नीतीश के पास ऊंची जाति तक पहुंचने का कोई रास्ता नहीं दिख रहा है. हालांकि सिर्फ लालू के साथ खड़े होकर नीतीश मुकाबला तो किसी को भी दे सकते हैं, लेकिन ठसक के साथ कह नहीं सकते कि सत्ता उन्हें ही मिल जायेगी.
तो तीन समीकरणों को समझना जरूरी है. पहला समीकरण, भाजपा के साथ मांझी और दूसरी तरफ लालू और नीतीश एक साथ. दूसरा समीकरण, भाजपा एक तरफ और बाकी एक साथ, जिसमें मांझी भी शामिल होंगे. और तीसरा समीकरण, लालू के साथ मांझी और नीतीश फिर से भाजपा के साथ.
कोई भी कह सकता है कि सिवाय पहले समीकरण के, बाकी समीकरणों के लिए रास्ता बन नहीं सकता. लेकिन, समझना यह भी होगा कि दिल्ली चुनाव प्रचार के वक्त नरेंद्र मोदी ने पहली बार नीतीश कुमार का नाम क्यों लिया? पहली बार निजी कार्यक्रम ही सही, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मुलायम-लालू के पारिवारिक विवाह समारोह में जाने के लिए क्यों तैयार हैं?
और इससे पहले महाराष्ट्र के बारामती जाकर जिस चाचा-भतीजे की सरकार को महाराष्ट्र चुनाव में गाली देकर मोदी ने निशाने पर लिया, उन्हीं के साथ मंच पर जाकर मोदी क्यों बैठ गये और यह कहने की जरूरत बार-बार क्यों पड़ी कि इसमें राजनीति कोई न देखे?
दरअसल, दिल्ली और पटना के बीच का एक सच अरविंद केजरीवाल की जीत भी है, जिसे भाजपा अब रणनीति से पार करना चाहती है, तो नीतीश कुमार राजनीति से. भाजपा की रणनीति में मांझी एक फिट केस हैं. मांझी खेमे में वर्तमान में 14 विधायक हैं. अगर भाजपा के 87 विधायक और भाजपा समर्थक दो निर्दलीय समर्थन करते हैं, तो मांझी के पक्ष में 103 विधायक हो जाएंगे, फिर भी मांझी को सरकार बचाने के लिए 14 और विधायकों की जरूरत होगी. मांझी की सरकार तभी बच सकती है, जब जदयू के और विधायक टूटें.
जदयू के विधायकों की कुल संख्या 111 है. दल-बदल विरोधी कानून के तहत जदयू से कम-से-कम 37 विधायकों के टूटने पर ही उन्हें अलग दल या गुट के रूप में मान्यता देने पर विचार हो सकता है. अगर इससे कम विधायक जदयू से टूट कर मांझी को समर्थन देते हैं, तो बगावत करनेवालों की विधानसभा सदस्यता भी खतरे में पड़ेगी. तो भाजपा शायद वह चाल नहीं चलेगी, जो जदयू को टूटने का न्योता दे और नीतीश कुमार शहीद हो जायें, क्योंकि अगर मांझी के बाद मौका नीतीश को मिलता है, तो नीतीश को सदन में गिराना ज्यादा आसान होगा. तब भाजपा विधानसभा से चुनाव मैदान में यह मैसेज लेकर जायेगी कि नीतीश अपनों से हारे.
दूसरे आंकड़ों के लिहाज से समङों, तो मौजूदा वक्त में जदयू के 99 विधायक हैं. इनमें स्पीकर भी शामिल हैं. नीतीश को राजद के 24, कांग्रेस के 5 भाकपा के 1 और एक निर्दलीय का समर्थन प्राप्त है. इस तरह नीतीश कुमार को सदन में 130 विधायकों का समर्थन हासिल है, जो बहुमत के लिए जरूरी आंकड़ा 117 से 13 अधिक है.
ऐसे में सारी सियासत मांझी के पाले में न खेल कर नीतीश कुमार के पाले में ही हर कोई खेलना चाहेगा, क्योंकि बिहार में अब भी नीतीश कुमार ही प्रमुख चेहरा हैं और भाजपा के लिए नीतीश के चेहरे को या तो खत्म करना जरूरी है या फिर अपने साथ खड़े कर लेना. तो विधानसभा के भीतर से सत्ता का यह खेल सुबह 11 बजे राज्यपाल के अभिभाषण से शुरू होगा, लेकिन उसका पटाक्षेप कब होगा, इसका इंतजार करना होगा, क्योंकि नेताओं और पार्टियों की आखिरी परीक्षा तो बिहार के वोटरों के सामने होगी, जिनका विधानसभा की परीक्षा से कुछ भी लेना-देना नहीं है. यानी शह-मात के इस खेल में किसकी बिसात पर कौन प्यादा साबित होगा और कौन वजीर, यह जानने के लिए अभी थोड़ा इंतजार करना होगा.