काम तो वे करते हैं हम तो बस..

शैलेश कुमार प्रभात खबर, पटना चुनाव से पहले वे हमारे पास आते हैं. ऐसे-ऐसे वादे करते हैं कि एक पल के लिए भ्रम होने लगता है कि हम सपना देख रहे हैं या फिर यह हकीकत है. वे एक के बाद एक पत्ते फेंकते जाते हैं और हम तो बस.. चुनाव की तारीख जैसे-जैसे नजदीक […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | February 21, 2015 12:37 AM

शैलेश कुमार

प्रभात खबर, पटना

चुनाव से पहले वे हमारे पास आते हैं. ऐसे-ऐसे वादे करते हैं कि एक पल के लिए भ्रम होने लगता है कि हम सपना देख रहे हैं या फिर यह हकीकत है. वे एक के बाद एक पत्ते फेंकते जाते हैं और हम तो बस.. चुनाव की तारीख जैसे-जैसे नजदीक आती है, एक-दूसरे पर आरोप लगाने का चक्र शुरू होता है.

कभी चुनाव में खर्च को लेकर आरोप लगते हैं, तो कभी चरित्र को लेकर. एक-दूसरे पर वे कीचड़ उछालते हैं और हम तो बस.. चुनाव पूरा होता है. चुनाव के नतीजे आते हैं. वे जीत जाते हैं. होली खेलते हैं. दिवाली मनाते हैं और हम तो बस.. इसके बाद वे जोड़-तोड़ कर सरकार बनाते हैं.

जम कर खरीद-फरोख्त करते हैं. सरकार बनाते हैं. सरकारी खजाने की बंदरबांट की योजना बनाते हैं और हम तो बस.. वे योजनाएं खूब बनाते हैं. उनके लिए राशि आवंटित करते हैं. नीचे तक पहुंचते-पहुंचते पता ही नहीं चलता कि राशि कहां गयी. योजनाएं तो बस लटकी रह जाती हैं और हम तो बस.. वे सदन में लड़ते हैं. गाली-गलौज करते हैं. कुरसी तोड़ते हैं. माइक उखाड़ते हैं. एक-दूसरे का हाथ-पैर तोड़ते हैं. सिर फोड़ते हैं और हम तो बस.. लूट मचाने पर कोई रोक-टोक हुई, तो सरकार डगमगाती है. समर्थन वापस लेने की धमिकयां मिलती हैं. राजनीति में अचानक भूचाल आता है और हम तो बस.. खिला-पिला कर वे सुलह की कोशिश करते हैं. हर एक की कीमत लगती है. कभी लंच पर, तो कभी डिनर पर मिलते हैं. कभी वे मान जाते हैं. कभी नहीं भी मानते और हम तो बस.. नहीं माने तो वे रास्ते अलग कर लेते हैं. दुश्मन भी दोस्त बनते हैं.

कल तक जिनके खिलाफ लड़ते थे, आज उन्हीं के गले मिलते हैं और हम तो बस.. जोड़-तोड़ का अब खेल चलता है. एक बार फिर से खूब लेन-देन होता है. सदन में बहस होती है. वोटिंग का रिजल्ट आता है. हर एक की कीमत रंग लाती है. सरकार बच जाती है और हम तो बस.. वे सत्ता का सुख भोगते हैं. जनता त्रहिमाम करती है. कभी घर में लुटती है, तो कभी सड़कों पर. कभी ट्रेनों में, तो कभी बसों में और हम तो बस.. वे जब मरजी करे अपना वेतन बढ़ाते हैं.

शिक्षक और अन्य कर्मचारी वर्षो तक वेतन मिलने का इंतजार करते हैं. अंत में तंग आकर जिंदगी खत्म कर लेते हैं और हम तो बस.. वे एसी में रहते हैं. कार में चलते हैं. जनता फुटपाथ पर सोती है. दुर्घटनाओं में मरती है. सिर ढकने के लिए आशियाने की भीख मांगती है और हम तो बस.. वे खा-खा कर थकते हैं. लंच में कुछ, तो कुछ डिनर में कुछ खाते हैं. जनता एक-एक रोटी के लिए तरसती है. भूखे बच्चे मां की गोद में दम तोड़ते हैं. फिर भी उन्हें राजनीति से फुरसत नहीं मिलती और हम तो बस.. हां, हम तो बस एक बार लोकतंत्र के सबसे बड़े महापर्व में अपनी अंगुली का दम दिखाते हैं. राजा को सीधे रंक और रंक को राजा बना देते हैं. आखिर इस देश को तो हम ही चलाते हैं!

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