अनिश्चितता खत्म अब बिहार को गढ़ें

बिहार में 17 दिनों से चल रहे राजनीतिक ड्रामे का अंत मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के इस्तीफे के साथ हो गया. जब मांझी को विधानसभा में शक्ति परीक्षण का सामना नहीं करना था तो यह काम वह पहले भी कर सकते थे. लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया, बल्कि वह लगातार यह दावा करते रहे कि […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | February 21, 2015 12:38 AM
बिहार में 17 दिनों से चल रहे राजनीतिक ड्रामे का अंत मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के इस्तीफे के साथ हो गया. जब मांझी को विधानसभा में शक्ति परीक्षण का सामना नहीं करना था तो यह काम वह पहले भी कर सकते थे. लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया, बल्कि वह लगातार यह दावा करते रहे कि उनके पास जरूरी बहुमत है.
यही नहीं, वह वित्तीय भार बढ़ाने वाले नीतिगत फैसले भी लेते रहे. तीन से 19 फरवरी के बीच उनकी मंत्रिपरिषद की छह बैठकें हुईं. इसमें 77 फैसले लिये गये. इन फैसलों को लागू करने पर अनुमानत: 30 हजार करोड़ का वित्तीय भार पड़ेगा. नयी सरकार इन फैसलों के बारे में क्या रुख अपनाती है, इसे देखा जाना है. पर इससे ज्यादा महत्व का सवाल यह है कि बिहार को इस अप्रत्याशित संकट में पहुंचाया ही क्यों गया? सात फरवरी को जदयू विधायक दल ने नीतीश कुमार को अपना नया नेता चुन कर यह जता दिया था कि उनके समर्थन में 130 विधायक हैं.
जदयू और उसे समर्थन दे रहे दलों ने पटना से दिल्ली तक संवैधानिक प्रमुखों के यहां विधायकों के साथ दस्तक देकर यह दिखाया कि बहुमत किसके साथ है. सवाल है कि मांझी किस आधार पर बहुमत का दावा कर रहे थे? यह संकट शुरू होने से पहले के राजनीतिक परिदृश्य को याद करें. एक तरफ मांझी अपने बयानों से जदयू नेतृत्व को संकट में डाल रहे थे तो दूसरी ओर केंद्र से आये मंत्री उनकी पीठ थपथपा रहे थे. इन मंत्रियों ने मुख्यमंत्री मांझी को ‘गरीबों का मसीहा’ तक कह डाला था, जबकि भाजपा उस मसीहा के खिलाफ लगातार हमले कर रही थी.
गौर करने की बात यह भी कि मांझी के चलते जदयू का संकट जैसे-जैसे बढ़ता जा रहा था, वैसे-वैैसे भाजपा का रुख बदलता जा रहा था. इन 17 दिनों में भाजपा मांझी को समर्थन देने के विषय पर या तो उलझी रही या दूसरों को उलझाये रही. आखिरकार, सदन में बहुमत साबित करने से पहले उसने अपना रुख साफ किया. भाजपा कहती रही कि यह जदयू का आंतरिक संकट है और इससे उसका कुछ भी लेना-देना नहीं है, पर दूसरी ओर वह मांझी के प्रति सहानुभूति भी प्रकट करती रही.
ये दोनों बातें एक साथ कैसे हो सकती थीं? कहीं न कहीं से मांझी को इस बात के संकेत मिल गये थे कि भाजपा उन्हें समर्थन देगी. इस प्रकरण के दौरान मांझी की दिल्ली में प्रधानमंत्री समेत अन्य शीर्ष नेताओं से मुलाकात को इससे जोड़ कर देखा जा सकता है. जाहिर है कि इस संकट के शुरू होने के साथ ही भाजपा नेतृत्व ने यह तय कर लिया था कि उसे क्या करना है. उसकी दिलचस्पी मांझी सरकार को बचाने से ज्यादा जदयू नेतृत्व को निशाना बनाने की रही. मांझी के बहाने वह महादलित कार्ड खेलने की रणनीति पर चल रही थी. विधानसभा चुनाव में वह इस बात को प्रचारित करेगी कि किस प्रकार ‘अपमानित’ किये जा रहे मांझी का उसने साथ दिया था.
हैरानी की बात है कि समर्थन देने वाली भाजपा यह कह रही है कि बहुमत के लिए बाकी विधायकों को जुटाने का काम मांझी करेंगे. इसका सीधा अर्थ है कि इस खेल में जदयू विधायक दल में टूट-फूट कराने की तमाम संभावनाओं को खुला छोड़ दिया गया था. लोकतांत्रिक व्यवस्था में दलों के अंदर विवाद, असहमति आम बात है, पर उसकी आड़ में पार्टियों में तोड़फोड़ को हवा देना कहां से मर्यादित माना जायेगा? यह दोतरफा खेल लोकतांत्रिक मूल्यों को ही धूमिल करता है. सच कहा जाये तो इस प्रकरण ने बिहार को लेकर आशंकाओं और उसकी पुरानी छवि की ओर लौटने का डर पैदा कर दिया था. लोग पूछ रहे थे कि बिहार में क्या हो रहा है?
विधायकों का बहुमत जिसके पास है, वह दल सड़क पर है और जिसके पास दर्जन भर विधायक हैं, वह सरकार में है. इस विचित्र हालत पर लोग अजीब मन:स्थिति में थे. एक बात और, जब जदयू विधायकों ने राजभवन जाकर अपना दावा पेश किया था तब कहा गया कि विधानमंडल के बजट सत्र की तारीख पहले से ही निर्धारित कर दी गयी है. सत्र के पहले दिन सबसे पहले राज्यपाल का अभिभाषण होगा और उसके बाद मांझी सरकार विश्वास मत हासिल करेगी.
लेकिन 20 फरवरी को सत्र शुरू होने से पहले ही मुख्यमंत्री मांझी ने अपना पद छोड़ दिया. स्पीकर ने विधानसभा को अनिश्चितकाल तक के लिए स्थगित कर दिया. अब नयी सरकार के आने पर बजट सत्र की नयी तारीख तय होगी. यही तर्क तो पहले भी दिया गया था कि बहुमत साबित करने के लिए विधानसभा का विशेष सत्र बुलाया जाये. अगर 20 फरवरी से पहले विशेष सत्र बुलाया गया होता तो बजट सत्र के बाधित होने का खतरा भी नहीं रहता.
जिसकी भी सरकार बनती, वह अपना अभिभाषण तैयार कराती. इस प्रकरण में जितने भी पक्ष हैं, अगर वे लोकतंत्र व बिहार के हितों को प्राथमिकता देते तो शायद 17 दिनों से कायम राजनीतिक अनिश्चितता का माहौल पैदा नहीं होता. बिहार को लेकर जो उम्मीद कायम हुई थी और कहा जा रहा था कि यह प्रदेश अब पटरी पर आ जायेगा, उनके लिए यह प्रकरण किसी संघात से कम नहीं है. उम्मीद करनी चाहिए कि बनने वाली नयी सरकार बिखरी कड़ियों को जोड़ कर बिहार को गढ़ने-बनाने की राह पकड़ेगी.

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