रणनीतिक फैसले की घड़ी
।।डॉ रहीस सिंह।।(विदेश मामलों के टिप्पणीकार)पाकिस्तान की तरफ से युद्ध विराम के उल्लंघन की घटनाएं और भारत में पाकिस्तान विरोधी शोर, दोनों अब एक-दूसरे के पूरक लगने लगे हैं. पूरक इसलिए, क्योंकि पाकिस्तान निरंतर उद्दंडता प्रदर्शित कर रहा है, पर भारत के लोग और बुद्धिजीवी कुछ समय तक शोर-शराबेवाली प्रतिक्रियाएं देकर आत्मसंतुष्टि पा ले रहे […]
।।डॉ रहीस सिंह।।
(विदेश मामलों के टिप्पणीकार)
पाकिस्तान की तरफ से युद्ध विराम के उल्लंघन की घटनाएं और भारत में पाकिस्तान विरोधी शोर, दोनों अब एक-दूसरे के पूरक लगने लगे हैं. पूरक इसलिए, क्योंकि पाकिस्तान निरंतर उद्दंडता प्रदर्शित कर रहा है, पर भारत के लोग और बुद्धिजीवी कुछ समय तक शोर-शराबेवाली प्रतिक्रियाएं देकर आत्मसंतुष्टि पा ले रहे हैं. सरकार राष्ट्र हित में फैसले लेने की बात कह कर बार-बार पाक के साथ मित्रता के नये प्रयासों में जुट जाती है. चूंकि यह एक परंपरा की तरह लगने लगा है, इसलिए यह सवाल उठना लाजिमी है कि इसके लिए दोषी किसे माना जाये? ‘हम भारत के लोगों’ की नजर में पाक दोषी है, लेकिन खुशफहमी व कृत्रिम उदारवाद की राह पर चल रही हमारी सरकार क्या इसके लिए बिल्कुल दोषी नहीं है?
सोमवार देर रात जम्मू-कश्मीर के पुंछ सेक्टर में पाकिस्तान की बॉर्डर एक्शन टीम (बीएटी) और आतंकियों ने मिल कर गश्त कर रहे पांच भारतीय सैनिकों को घात लगा कर मार डाला. अभी मेंढर सेक्टर में हुई घटना को बहुत दिन नहीं हुए हंै. इसी वर्ष 8 जनवरी को वहां पाक सैनिकों ने ठीक इसी तरह से दो भारतीय सैनिकों पर हमला किया था और एक सैनिक का सिर काट कर अपने साथ ले गये थे. तब भी पाक फौज ने इसे अपने सैनिक की करतूत नहीं माना था और आज भी वह इसे मानने के लिए तैयार नहीं है.
पाक फौज द्वारा हमले के लिए अपने सैनिकों को दोषी न मानने के लिए बहुत हद तक हमारी सरकार भी दोषी है. हमारे रक्षा मंत्री संसद में बयान देते हैं कि हमलावर आतंकवादी थे, जो पाकिस्तानी सेना की वर्दी पहन कर आये थे. यह सरकार का बयान था जो संसद में व्यक्त होने से पहले एक सुनिश्चित प्रक्रिया से होकर गुजरता है. सेना और सरकार के बयानों में अंतर यह बताता है कि सरकार नहीं चाहती कि पाकिस्तान पर सीधे आक्षेप किया जाये. ऐसा क्यों है, सरकार से इसका जवाब मांगा जाना बहुत जरूरी है.
दरअसल यह झूठी और राष्ट्र को अशक्त करनेवाली कवायद सिर्फ इसलिए की गयी, ताकि सितंबर में न्यूयार्क में मनमोहन सिंह और नवाज शरीफ के बीच होनेवाली मुलाकात सफल हो सके. राष्ट्रीय हितों को किनारे कर ऐसी मुलाकातों के लिए मार्ग प्रशस्त करने के प्रयास करनेवाली यह संभवत दुनिया में इकलौती सरकार होगी. अगर ऐसा न होता तो क्या 2012 में 93 बार या 2010 से 2012 के बीच 200 बार और 2013 में अब तक 57 बार सीजफायर का उल्लंघन करनेवाले पाकिस्तान के साथ बातचीत के प्रति हमारी सरकार की तरफ से इतनी उत्कंठा प्रदर्शित की जाती?
एक पूर्व सैन्य अधिकारी का मानना है इस हमले का मकसद घाटियों, दरें और नालों से होकर दहशतगदरें को भारत भेजना था. इसका मतलब यह हुआ कि सीजफायर का उल्लंघन जितना ज्यादा बढ़ेगा, आतंकियों का भारत में प्रवेश उतना ही ज्यादा होगा. यह बात तो रक्षा मंत्रलय भी मान रहा है कि जनवरी से अब तक घुसपैठ और युद्धविराम उल्लंघन के मामले में 80 फीसदी से अधिक की वृद्धि हुई है. मतलब साफ है, भारत में आतंकवादियों की घुसपैठ बढ़ी है और पाकिस्तान अपने मकसद में कामयाब हुआ है.
इसके बावजूद हमारी सरकार यह मान कर चल रही है कि पाकिस्तान में लोकतांत्रिक सरकार बनी है, जो भारत के साथ मित्रता चाहती है. क्या यह समय की मांग नहीं है कि भारत सरकार इस विषय पर विचार करे कि पाकिस्तान की जनता ने उदारवादी दलों को ठुकरा कर कट्टरपंथी दल अथवा नेताओं का चुनाव क्यों किया? आखिर कोई तो बात होगी कि जब तालिबान ने चुनाव बहिष्कार की घोषणा की थी तब उसने पाकिस्तान मुसलिम लीग-नवाज के नेताओं को निशाना नहीं बनाया था. कहीं इसका कारण यह तो नहीं कि चरमपंथियों को पिछले दरवाजे से अपने हिमायतियों को सत्ता तक पहुंचाना था.
भारत सरकार यह कह कर भावनात्मक मरहम लगाने की कोशिश करती रही है कि पाकिस्तान स्वयं आतंकवाद से त्रस्त है. पाक में आतंकवाद के लिए भारत नहीं, बल्कि वह स्वयं जिम्मेवार है. वह उन भारत विरोधी आतंकी समूहों का पोषण कर रहा है. कुछ लोग तर्क दे सकते हैं कि पाक सरकार का उसकी फौज और आइएसआइ पर नियंत्रण नहीं है, इसलिए उसे दोषी नहीं माना जा सकता. तो क्या पाक फौज और खुफिया एजेंसी, जो भारत को दुश्मन नंबर एक मानती है, अपना मिशन पूरा करती रहें, और जवाबी कार्रवाई की बजाय भारत पाक में लोकतंत्र को मजबूत करने के नाम पर अपना अमूल्य योगदान व बलिदान देता रहे! जाहिर है, यह भारत के लिए रणनीतिक फैसले की घड़ी है.