योजनाओं का बखान आशंकाओं पर चुप्पी
राष्ट्रपति ने अभिभाषण में जिन कल्याणकारी योजनाओं का जिक्र किया है, उनमें जोर योजना का दायरा बढ़ाने पर नहीं, सूचना-प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल से उन्हें युक्तिसंगत बनाने पर है. बजट-सत्र की शुरुआत किसी सरकार के लिए उपलब्धियों के बखान और नीतिगत प्राथमिकताएं जताने का समय होता है. संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण को इस नजरिये से […]
राष्ट्रपति ने अभिभाषण में जिन कल्याणकारी योजनाओं का जिक्र किया है, उनमें जोर योजना का दायरा बढ़ाने पर नहीं, सूचना-प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल से उन्हें युक्तिसंगत बनाने पर है.
बजट-सत्र की शुरुआत किसी सरकार के लिए उपलब्धियों के बखान और नीतिगत प्राथमिकताएं जताने का समय होता है. संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण को इस नजरिये से देखें तो केंद्र सरकार के बारे में कुछ बातें साफ नजर आती हैं. पहला, वह गरीबों के लिए काम करती दिखना चाहती है.
चाहे 35 योजनाओं के लिए डायरेक्ट कैश ट्रांसफर की बात हो या रुपे डेबिट कार्ड जारी करने, जन-धन के तहत बैंक खाते खोलने, मनरेगा को जारी रखने और स्कूलों में शौचालय-निर्माण- केंद्र सरकार इन्हें गरीबों के हक में किये गये काम के रूप में ‘शो-केस’ करना चाहती है. सरकार का दूसरा लक्ष्य महिला-हितों की पक्षधर दिखना है. बेटी बचाओ और सुकन्या योजना, महिलाओं की सुरक्षा के लिए ‘हिम्मत एप’ आदि से यही जाहिर होता है. हालांकि महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए सामाजिक क्षेत्र में बुनियादी बदलाव की दरकार है. राष्ट्रपति के अभिभाषण में औद्योगिक विकास को प्रोत्साहन, न्यूनतम मजदूरी को सुनिश्चित करने के लिए वेज सीलिंग और कारोबार सुगम बनाने के लिए सुविधा पोर्टल जैसी बातें प्राथमिकता के लिहाज से तीसरे नंबर पर आयी हैं और चौथे नंबर पर है केंद्र व राज्यों के बीच सहयोग की बात.
फिलहाल, बीते नौ महीने के घटनाक्रमों से लगता है कि सरकार की विकासपरक छवि को सबसे ज्यादा चोट गरीबों की पक्षधरता वाले मोर्चे पर ही लगी है. पहले स्वास्थ्य और मनरेगा के बजट में कटौती, फिर पीडीएस का दायरा कम करने की सिफारिश और फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य के मामले में कदम पीछे खींचने से लोगों में आशंका जगी कि सरकार कल्याणकारी योजनाओं में सब्सिडी देने से इनकार कर रही है. पिछली एनडीए सरकार में मंत्री रहे शांता कुमार ने तो यहां तक कह दिया कि भोजन का अधिकार कानून को मजबूत बनाने की बात भाजपा ने आम चुनावों के मद्देनजर कही थी, अब सरकार का इरादा इस कानून को युक्तिसंगत बनाने का है.
सब्सिडी आधारित कार्यक्रमों को युक्तिसंगत बनाने का तर्क सरकार को रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर विमल जालान की अगुवाई में बने एक्सपेंडिचर मैनेजमेंट कमीशन की सिफारिशों से मिला. इस आयोग ने नीतिगत सुधार को नहीं, बल्कि आर्थिक-वृद्धि दर की बढ़वार को प्राथमिक माना और कल्याण कार्यों में सरकारी कोष से होनेवाले व्यय के प्रबंधन की बात कही. आयोग की सोच यह थी कि पीडीएस के जरिये गरीबों को 1 रुपया का राशन मुहैया कराने में सरकार को 2 रुपये 65 पैसे ऊपर से खर्च करने पड़ते हैं. ऐसे खर्चे में सूचना प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल से कमी लायी जा सकती है. आयोग ने यह भी कहा कि ‘जो लोग सामान और सेवाओं को खरीद पाने की स्थिति में हैं, उन्हें सब्सिडी नहीं दी जानी चाहिए’.
राष्ट्रपति ने अभिभाषण में जिन कल्याणकारी योजनाओं का जिक्र किया है, उनमें यही सोच दिखता है. जोर योजनाओं का दायरा बढ़ाने पर नहीं, सूचना-प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल से उन्हें युक्तिसंगत बनाने पर है. भूमि-अधिग्रहण संबंधी अध्यादेश ने भी लोगों को सरकार के विकास के वादे पर अंगुली उठाने के लिए मजबूर किया है. अब सरकार ने राष्ट्रपति के मुंह से कहलवाया कि भूमि-अधिग्रहण कानून ‘किसानों के हक में है’, जबकि राष्ट्रपति कुछ दिनों पहले इसे अध्यादेश के जरिये लागू करने पर एतराज जता चुके थे.
नागरिक संगठनों का आरोप है कि सरकार ने औद्योगिक लॉबी के हितों को बढ़ावा देने के लिए इस कानून में कुछ ऐसे बदलाव किये हैं, जो किसान-विरोधी हैं. मसलन, यूपीए द्वारा पारित कानून के सेक्शन 10 ए के अंतर्गत प्रावधान था कि कोई व्यक्ति या कंपनी भूमि-अधिग्रहण करना चाहे तो उसे 80 प्रतिशत जमीन के मालिकों से सहमति लेनी होगी. लेकिन, संशोधित अध्यादेश में कहा गया कि राष्ट्रीय सुरक्षा, रक्षा-मामलों, आधारभूत संरचना, औद्योगिक कॉरीडोर तथा सस्ते आवास से संबंधित कामों के लिए भूमि-अधिग्रहण करते वक्त न तो भू-मालिकों की सहमति जरूरी होगी और न यह देखना कि इसका सामाजिक रूप से लोगों के जीवन व जीविका पर क्या असर होता है.
नागरिक संगठनों का कहना है कि इन पांच श्रेणियों के अंतर्गत किसी भी तरह के भू-अधिग्रहण को शामिल किया जा सकता है और सामाजिक प्रभाव से संबंधित आकलन को समाप्त कर सरकार ने विस्थापितों के पुनर्वास और पुनस्र्थापन की बाध्यता से भी अपना पल्ला छुड़ा लिया है. जहां तक केंद्र और राज्यों के सहयोग की भावना से काम करने और संघीय ढांचे को मजबूत करने का सवाल है, नीति आयोग की बैठक में कई राज्यों के मुख्यमंत्री अपनी-अपनी आशंकाएं दर्ज करा चुके हैं. जाहिर है, राष्ट्रपति का अभिभाषण सरकार के अब तक के कदमों से जागी आशंकाओं का कोई ठोस समाधान पेश नहीं करता है.