।। रविभूषण ।।
(वरिष्ठ साहित्यकार)
– निजी हितों, दलीय हितों की रक्षा में सब साथ हैं. राष्ट्र की चिंता दूर–दूर तक नही है. ऐसी अशक्तता, पंगुता पहले नहीं थी. यह एक नया दौर है, जिसमें राजनीतिक दल राष्ट्रीय चिंताओं से विमुख हैं. –
आज 12 अगस्त को सर्वोच्च न्यायालय ग्रेटर नोएडा की एसडीएम दुर्गाशक्ति नागपाल के निलंबन से संबंधित याचिका पर सुनवाई करेगी. त्रिलोचन शास्त्री ने अपने एक सॉनेट में चारों ओर दीवारों के खड़ी होने की बात कही है और यह भी कहा है कि आओ धक्का मार कर उसे गिरा दें. दीवारें खड़ी करने वालों और दीवारें गिराने वालों में अंतर है. दोनों की नीयत भिन्न है.
दुर्गाशक्ति को मसजिद की दीवार गिराने का दोषी ठहराया गया. उन्हें चाजर्शीट दी गयी है. युवा आइएएस अधिकारी ने अपने कर्तव्य और सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का पालन किया. उन्होंने गौतमबुद्ध नगर में बालू माफिया के खिलाफ कार्रवाई की. विधायक न होने के बाद भी कैबिनेट मंत्री का दर्जा प्राप्त उत्तर प्रदेश एग्रो के अध्यक्ष नरेंद्र भाटी ने 41 मिनट में दुर्गाशक्ति को निलंबित कराया. कानून का पालन करनेवालों को आज परेशान करना और सजा देना–दिलाना आम बात है. अब कर्तव्य परायणता का कोई अर्थ नहीं है. डीएम की रिपोर्ट के अनुसार ही नहीं, ग्रामीणों के अनुसार भी मसजिद की दीवार एसडीएम ने नहीं, ग्रामीणों ने गिरायी थी.
जनता मेल–मिलाप को महत्व देती है, जिसके बिना जीवन नहीं चलता. राजनीति इसके विपरीत जनता को विभाजित करती है. इसके तार बहुत पुराने हैं. प्रश्न केवल एक अधिकारी का नहीं, सरकार के रवैये, उसके चाल–चलन और कार्य पद्धति का है. ईमानदार और कर्तव्य–परायण अधिकारी को परेशान करने का है.
वोट की राजनीति, ‘बांटो और राज करो’ पर टिकी है. सरकार का जनता से संबंध गौण और माफिया से संबंध प्रमुख है. आवारा पूंजी का प्रभाव–क्षेत्र व्यापक है. इसने राजनीतिक दलों, नेताओं, सरकारों, अधिकारियों– सबको विकृत किया है. समाज में अपराधी सम्मानित हैं. सुयोग्य प्रत्याशियों को चुनाव में हार का मुंह का देखना पड़ता है. दबंग चुनाव जीत जाते हैं. एक अशिक्षित–अर्धशिक्षित देश में जहां बुद्धि–विवेक, विचार–सिद्धांत, मूल्य–नियम का कोई मूल्य न हो, वहां लोकतंत्र भ्रष्ट और रुग्ण बन जाता है.
पहली बार किसी राज्य और वह भी उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य के नेता ने केंद्र के हस्तक्षेप के बाद सभी आइएएस अधिकारियों को बुला लेने की बात कही है. वे राज्य का सारा काम राज्य के अफसरों के बूते चला लेने की बात कह रहे हैं. ब्यूरोक्रेसी के सुधार से अधिक चिंता उसे अपने अधीन करने की है.
एक नये किस्म का सरकारी आतंकवाद फैल रहा है, जो सामान्य नागरिकों को ही नहीं, अफसरों को भी भयग्रस्त करता है. भारतीय राजनीति आज लोकतंत्र को दुर्बल बना रही है. असहमति और विरोध के स्वर दबाये जा रहे हैं. क्या भारतीय लोकतंत्र के होंठ सिले जा रहे हैं? कानून का पालन और दायित्व का निर्वाह करनेवाले को सजा और माफिया को तरजीह क्यों दी जाती है?
अंगरेजों ने जिस मात्र में ‘बांटो और राज करो’ की राजनीति को अंजाम दिया, उससे कई गुना आगे आज जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र आदि के नाम पर यह जारी है. तेलंगाना को अलग राज्य बनाने की घोषणा के बाद बंगाल में गोरखालैंड, असम में बोडोलैंड और कर्बी आंग लौंग, मणिपुर में कुकी राज्य, नगालैंड में फ्रंटियर नगालैंड, गुजरात में सौराष्ट्र, उत्तर प्रदेश में पूर्वाचल, बुंदेलखंड, आंध्र प्रदेश और पश्चिमी प्रदेश, महाराष्ट्र में विदर्भ की मांग जोर पकड़ेगी. यह कभी न थमनेवाला सिलसिला होगा. भारत को अनेक राज्यों में विभाजित कर उसकी एकता और अखंडता कमजोर की जायेगी. आंध्र में पस्त कांग्रेस की नजर तेलंगाना की 17 लोकसभा सीटों पर है. तेलंगाना राष्ट्र समिति के प्रमुख के चंद्रशेखर राव बाद में कांग्रेस में शामिल हो सकते हैं.
देश के कोयला भंडार का 20 प्रतिशत तेलंगाना में है. वहां चूना–पत्थर और बॉक्साइट का विशाल भंडार है. झारखंड राज्य बनने से जिस तरह झारखंडवासियों को कोई फायदा नहीं हुआ, उसी तरह इसकी पूरी संभावना है कि तेलंगाना राज्य से वहां के निवासियों को शायद ही कोई लाभ हो.
भारतीय लोकतंत्र अपने बुरे दौर में है. चुनाव का पर्याय बन कर लोकतंत्र अपना वास्तविक अर्थ खो चुका है. उसकी परिभाषा बदल चुकी है. वह आइसीयू में है– अधिक अस्वस्थ और रुग्ण. भ्रष्टाचार अपनी युवावस्था में है. 1991 के बाद अब यह 22 वर्षीय है. लोकतंत्र को अपराधी, भ्रष्टाचारी और माफिया अपने कब्जे में कर रहा है. सरकारें उनके साथ हैं. सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों की अनदेखी की जा रही है. लोकतंत्र दिखावटी, कृत्रिम, झूठा और अविश्वसनीय बन चुका है.
जन–प्रतिनिधित्व कानून की धारा 8(4) को संविधानेत्तर घोषित करने के बाद सभी राजनीतिक दल लगभग एकजुट हैं. निजी हितों, दलीय हितों की रक्षा में सब साथ हैं. राष्ट्र की चिंता दूर–दूर तक नही है. ऐसी अशक्तता, पंगुता पहले नहीं थी. यह एक नया दौर है, जिसमें राजनीतिक दल राष्ट्रीय चिंताओं से विमुख हैं. संविधान के पन्ने उड़ रहे हैं. क्या वह मात्र कागज का एक पुलिंदा है? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता आज कहीं अधिक खतरे हैं. दलित लेखक कंवल भारती की गिरफ्तारी एक बानगी है.
अनियंत्रित पूंजी के दौर में वाणी पर नियंत्रण समाप्त हो रहा है. नेताओं के बीच एक नूराकुश्ती चल रही है. तू–तू, मैं–मैं का माहौल है. यह देश इतना दुर्बल, हताश और असहाय तो कभी नहीं था. रक्षा मंत्री बिना ठोस जानकारी के बयान देते हैं और बिहार का एक मंत्री यह बोलता है कि सेना में जवानों की भरती मरने के लिए ही होती है. चीन और पाकिस्तान के सैनिक अपनी करतूतों से बाज नहीं आते. नियंत्रण रेखा का उल्लंघन बार–बार होता है. देश असहाय क्यों है? कमजोर क्यों है?
गुजरात सरकार द्वारा पारित एक विधेयक में लोकायुक्त के चुनाव का अधिकार राज्य सरकार को सौंप दिया गया, जिसमें राज्यपाल और उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की भूमिका समाप्त प्राय है. नरेंद्र मोदी न्यायमूर्ति आरए मेहता के लोकायुक्त बनने के विरोधी हैं.
क्या सचमुच मेहता सरकार विरोधी हैं? गुजरात के राज्यपाल और मुख्य न्यायाधीश को लिखे पत्र में उन्होंने सरकार की ओर से किसी प्रकार के आमंत्रण और जारी की गयी अधिसूचना के न होने की बात कही है. उन्होंने लिखा है कि सरकार लोकायुक्त को ‘पिंजरे का तोता’ बनाना चाहती है. इसने भद्रता और गरिमा खो दी है. विचारणीय यह है कि क्या सरकार समर्थक न होने का अर्थ सरकार विरोधी होना है? यह बुश थ्योरी है कि जो उसके साथ नहीं है, वह उसका विरोधी है.
न्यायमूर्ति मेहता ने एक तीसरी श्रेणी–‘स्वतंत्र और तटस्थ ’ की बात कही है. मेहता द्वारा लोकायुक्त का पद अस्वीकार कोई सामान्य घटना नहीं है. गुजरात में मोदी (भाजपा) हैं, उत्तर प्रदेश में मुलायम–अखिलेश (सपा) और केंद्र में कांग्रेस. ऐसे उदाहरण बार–बार दिखाई देते हैं और हम उन्हें गंभीरता से नहीं लेते.