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खामोश! अबकी बार मां-बेटी की सरकार

रजनीश आनंद प्रभात खबर.कॉम क्रिकेट विश्व कप के मौसम में भारत की लगातार तीन जीत से मन बहुत प्रसन्न था. यह उम्मीद भी जाग रही थी कि शायद भारत एक बार फिर धौनी भाई के नेतृत्व में विश्व विजेता बन जाये. वैसे एक आम भारतीय क्रिकेट प्रेमी की तरह मेरे मन में भी इस बात […]

रजनीश आनंद
प्रभात खबर.कॉम
क्रिकेट विश्व कप के मौसम में भारत की लगातार तीन जीत से मन बहुत प्रसन्न था. यह उम्मीद भी जाग रही थी कि शायद भारत एक बार फिर धौनी भाई के नेतृत्व में विश्व विजेता बन जाये.
वैसे एक आम भारतीय क्रिकेट प्रेमी की तरह मेरे मन में भी इस बात का सुकून था कि अगर विश्व कप ना भी जीत पाये तो कोई बात नहीं, पाकिस्तान को तो हार का स्वाद चखा ही चुके हैं.
छुट्टी के दिन भारत-पाकिस्तान का मैच और परिणाम यह कि भारत विजेता बना, इसके बावजूद मुङो मेरे परम मित्र शर्माजी के न तो दर्शन हुए और न ही उन्होंने फोन करके बधाई दी. यह बात मुङो पिछले कुछ दिनों से परेशान कर रही थी, लेकिन मैं कुछ व्यस्तता की वजह से शर्माजी का हालचाल नहीं ले पायी थी. सो आज यह तय करके ऑफिस से निकली कि उनसे मिल कर ही घर जाऊंगी. रास्ते में मैं इसी आशंका से ग्रसित थी कि कहीं शर्माजी की तबीयत न खराब हो. घर पहुंचते ही मैंने दरवाजे पर दस्तक दी, तो उनकी पत्नी ने दरवाजा खोला. हम दोनों ने एक दूसरे का अभिवादन किया.
घर में प्रवेश करते ही मेरी नजर शर्माजी पर पड़ी. काफी निराश दिख रहे थे. मैं उनके बगल में जाकर बैठ गयी और हालचाल पूछा, ‘‘तबीयत तो ठीक है न आपकी?’’ उन्होंने हां में सिर हिला दिया. ‘‘फिर क्या बात है इतने दिनों से न दुआ न सलाम.’’ मेरी बात सुन शर्मा जी बिफर पड़े, ‘‘अरे मोहतरमा! मैं इस देश के राजनेताओं के आचरण पर दुखी हूं. इनमें सत्तामोह इस कदर भरा पड़ा है कि धृतराष्ट्र इनके सामने फेल हैं. जनता बार-बार इनके झांसे में आ जाती है और अपना नुकसान करवाती है.
एक ने तो अच्छे दिन के वो ख्वाब दिखाये कि मैं सपनों की दुनिया में विचरण करने लगा. सपने में मुङो रांची की सड़कें न्यूयार्क जैसी दिखने लगी थीं, उसी सड़क पर मटर खरीदते-खरीदते मैं जब नाली में जा गिरा, तो मेरा सपना ऐसा टूटा कि क्या कहें. फिर भी मैं उम्मीद लगाये बैठा था कि अच्छे दिन आयेंगे. लेकिन जम्मू-कश्मीर में जिस तरह से सरकार बनी है वह मेरे गले नहीं उतर रही. आखिर ‘बाप-बेटी की सरकार’ के साथ अपनी सरकार कैसे साङोदार बन सकती है.
आखिर सिद्धांत भी कुछ मायने रखते हैं या नहीं? उसपर भी सबकुछ ठीकठाक रहता तो मैं किसी तरह इस बात को पचा भी लेता, लेकिन मुख्यमंत्री बनते ही पाकिस्तान और आतंकियों का महिमामंडन. अब किस मुंह से मैं अपने विरोधियों के सामने जाऊं, मैं तो दोस्तों से भी बात करने की स्थिति में नहीं हूं.’’ शर्माजी की स्थिति देख दुख तो बहुत हुआ, लेकिन क्या करती? उन्हें सांत्वना देने की कोशिश की, ‘‘अरे शर्माजी, इन राजनेताओं का क्या है!
ये तो सत्ता सुख के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं. इनकी बातों को दिल से मत लगाइए.’’ मैं शर्माजी को समझा तो रही थी, लेकिन खुद को नहीं समझा पा रही थी कि आखिर सत्ता सुख के लिए हमारे नेता किस हद तक जा सकते हैं..

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