प्रधानमंत्री के श्रीलंका दौरे के निहितार्थ
पुष्पेश पंत वरिष्ठ स्तंभकार भारतीय प्रधानमंत्री की महत्वपूर्ण यात्र की पूर्व संध्या का वातावरण बिगाड़ने का सुनियोजित षड्यंत्र ही कहा जा सकता है. अपने राष्ट्रहित का यह तकाजा है कि इसका विश्लेषण ठंडे दिमाग से, दलगत पक्षधरता से ऊपर उठ कर किया जाये. अपना पद भार ग्रहण करने की घड़ी से ही नरेंद्र मोदी का […]
पुष्पेश पंत
वरिष्ठ स्तंभकार
भारतीय प्रधानमंत्री की महत्वपूर्ण यात्र की पूर्व संध्या का वातावरण बिगाड़ने का सुनियोजित षड्यंत्र ही कहा जा सकता है. अपने राष्ट्रहित का यह तकाजा है कि इसका विश्लेषण ठंडे दिमाग से, दलगत पक्षधरता से ऊपर उठ कर किया जाये.
अपना पद भार ग्रहण करने की घड़ी से ही नरेंद्र मोदी का यह प्रयास रहा है कि भारत की विदेश नीति तथा राजनय को नयी दिशा और गति दी जाये. कुछ आलोचक तो यह टिप्पणी तक कर चुके हैं कि इस प्राथमिकता परिवर्तन से देश की आंतरिक समस्याओं की अनदेखी होने लगी है. लेकिन, इस बारे में दो राय नहीं हो सकती कि पिछले लगभग दस महीनों में चीन हो अथवा जापान, अमेरिका हो या ऑस्ट्रेलिया, नेपाल-भूटान हों या ब्रिक्स जैसे बहुराष्ट्रीय संगठन, भारत की अंतरराष्ट्रीय पहचान उदीयमान हस्ती के रूप में की जाने लगी है-यूपीए-2 मनमोहन सरकार के दिनों वाला गतिरोध समाप्त होता नजर आता रहा है. विडंबना यह है कि तीन छोटे पड़ोसी देशों की ताजातरीन यात्र पर निकलते वक्त दिग्विजय का यह माहौल पूरी तरह बदला दिखलाई दे रहा है. नरेंद्र मोदी ने अश्वमेध का जो घोड़ा छोड़ा था, वह इस बार घर से निकलते ही पकड़ कर रोक लिया गया है.
श्रीलंका के प्रधानमंत्री रनिल विक्रमसिंघे ने तमाम राजनयिक शिष्टाचार ताक पर रख इसी वक्त चेतावनी देते यह घोषणा करना जरूरी समझा है कि अगर भारतीय मछुआरे उनके देश की समुद्री सीमा में घुस कर जाल डालने का दुस्साहस करते हैं, तो उन्हें गोली का निशाना बनने के लिए तैयार रहना चाहिए! इतना ही नहीं आगे बढ़ कर ललकारनेवाले अंदाज में उनहोंने कई पुराने जख्म भी कुरेद दिये हैं- श्रीलंका के गृह युद्ध के युग में भारतीय मछुआारों के वेश में तस्कर तथा अन्य लिट्टे समर्थक जाफना में दखलंदाजी करते रहे हैं, असलहा पहुंचाते रहे हैं वगैरह. उन्होंने यह जोड़ना भी परमावश्यक समझा कि अगर कोई घुसपैठिया चोर आपके घर मे प्रवेश करता है, तो उसे मार गिराना आपके आत्मरक्षा का अधिकार है, जिसे कानून स्वीकार करता है.
इस तरह के बल-प्रयोग को मानवाधिकारों का उल्लंघन नहीं कहा जा सकता. मजेदार बात यह है कि विक्रमसिंघे यह मुखौटा पहन प्रकट हो रहे हैं कि वह जाफना के तामिल मछुआरों के हितों की रखवाली के लिए कमर कस रहे हैं, जिनको सिंहल पक्षधर सरकार द्वारा कुचले-दबाये जाने का आरोप कोलंबो पर लगाया जाता है. बची कसर को पूरी करनेवाले अंदाज में वह यह जोड़ना भी नहीं भूले कि अतीत में कुछ मजबूरियों के चलते भारत के साथ इस विषय में जो भी समझौता करना पड़ा हो, उस पर पुनर्विचार की आवश्यकता है- बंगाल की खाड़ी की यह जलराशि श्रीलंका की मिल्कियत है, इसका ध्यान भारत को रखना ही होगा.
यहां कुछ और बातों की तरफ ध्यान देना जरूरी है. अपने शपथ ग्रहण समारोह के लिए महिंदा राजपक्षे को निमंत्रण देकर मोदी ने देश के सभी तामिल राजनैतिक दलों की नाराजगी का खतरा मोल लिया था. राजपक्षे के साथ दोस्ती का हाथ बढ़ाना जुए का ऐसा दावं था जो हारा जा चुका है. चुनाव में राजपक्षे की पराजय के बाद उनका स्वर अचानक बदल गया. वे अपनी हार के लिए भारत के गुप्तचर संगठन रॉ को दोष देने लगे हैं और पाकिस्तान की दोस्ती का आभार प्रकट करते रहे हैं.
कुल मिला कर संकेत चिंताजनक हैं- सत्तारूढ़ दल और विपक्ष, दोनों ही इस समय भारत को गले लगाने को तैयार नजर नहीं आ रहे. यह सुझाना नादानी ही कहा जा सकता है कि ये तमाम वक्तव्य घरेलू राजनीति के दबाव में दिये जा रहे हैं- भारत श्रीलंका संबंधों पर इनका प्रभाव पड़नेवाला नहीं आदि. हाल के महीनों में चीन के साथ उस देश के रिश्ते निरंतर घनिष्ठ हुए हैं- खास कर आर्थिक सामरिक क्षेत्र में. इसमें मतभेद की गुंजाइश नहीं कि भारत ने अपनी मौजूदगी दर्ज कराने के मौके गंवाये हैं. चीन तथा पाकिस्तान दोनों के ही साथ हमारे रिश्तों की गुत्थी श्रीलंका के साथ उलझी है. मालदीव का जिक्र अभी बाकी रहता है.
परेशानी सिर्फ इतना नहीं कि तामिलनाडु की राजनीति ने हमारी श्रीलंका नीति को बंधक बना रखा है, बल्कि असली पेच यह है कि श्रीलंका की जातीय-सांप्रदायिक राजनीति का स्वरूप तथा चरित्र जब तक नहीं बदलता, तब तक इन रिश्तों में सुधार की कल्पना नहीं की जा सकती.
जहां तक समुद्री सीमा विषयक कानून का सवाल है यह सरदर्द भी बचा रहेगा. सागर तट से खींची जो सीधी रेखा किसी देश की समुद्री सीमा को निर्धारित करती है, उसका टकराव कई जगह यह तय करना कठिन ही नहीं असंभव बना देता है कि यह सरहद स्पष्ट दर्शायी जा सके.
नक्शे की बात छोड़िए समुद्र की लहरों पर तैरते मछुआरे किस अदृश्य सीमा के इस या उस ओर अपनी इच्छानुसार या सरकार के आदेशों का पालन करते रह सकते हैं? तूफान के थपेड़े पल भर में उन्हें विदेश पहुंचा सकते हैं. पाकिस्तान के साथ भी इस तरह का विवाद हमारे उभयपक्षी राजनय का स्थायी भाव बन चुका है. अगर दोनों देशों के बीच दोस्ताना तनाव रहित संबंध हैं, तो समाधान कठिन नहीं, अन्यथा यही टकराव विस्फोटक स्थिति पैदा कर सकते हैं.
बहरहाल जो कुछ देखने को मिल रहा है, वह मछुआरों की दयनीय हालत पर केंद्रित नहीं. इसे भारतीय प्रधानमंत्री की महत्वपूर्ण यात्र की पूर्व संध्या का वातावरण बिगाड़ने का सुनियोजित षड्यंत्र ही कहा जा सकता है. अपने राष्ट्रहित का यह तकाजा है कि इसका विश्लेषण ठंडे दिमाग से दलगत पक्षधरता से ऊपर उठ कर किया जाये. क्या विक्रमसिंघे के बयान को चीन या पाकिस्तान ने प्रेरित किया है अथवा उस देश की अब तक जारी आंतरिक राजनीतिक रस्साकशी का प्रतिबिंब हम देख रहे हैं? या फिर ‘दैत्याकार’ पड़ोसी भारत के प्रति स्वाभाविक आशंकाएं ही झलक रही हैं, जिनका निराकरण करने की जरूरत है?
मोदी इस बार सेशैल्स और मॉरीशस भी जा रहे हैं. इन दोनों देशों के साथ हमारे पारंपरिक-सांस्कृतिक संबंध विशेष रहे हैं. कहीं भारतवंशी आबादी की बहुतायत है, तो कहीं हमारी मौजूदगी के सामरिक आयाम जगजाहिर हैं. इन दोनों देशों के साथ हमारे रिश्ते अनिवार्यत: श्रीलंका की तरह नहीं उलङो हैं. ऐसा भी नहीं कि इनके साथ संबंध पूर्णत: तनावमुक्त हैं. खास कर हवाला रूट तथा कॉरपोरेट फ्रॉड के सिलसिले में मॉरीशस का जिक्र होता रहा है. इसलिए आज मात्र हिंदू संस्कृति के नाम पर उसके साथ घनिष्ठता की कल्पना नहीं की जा सकती.
जाहिर है, दशकों पहले दिएगो गार्सिया द्वीप अमेरिकी नौसेना को सौंपने के बाद से ही यह संभावना नष्ट हो चुकी है कि भारत यहां असरदार हो सकता है. सेशैल्स में पैर जमा कर अफ्रीका के पूर्वी तट पर सक्रिय होने की सोचना भी मरीचिका ही है. तब क्या इन दोनों देशों को इस दौरे में सिर्फ इसलिए शामिल किया गया है कि श्रीलंका दौरे की संवेदनशील सफलता या विफलता से ध्यान बंटाया जा सके?