हमें आजाद हुए छह दशक बीत चुके हैं. आजाद भारत को लेकर न जाने कितनी नव आशाएं थीं, देश की चुनौतियों को बौना साबित करने को हम प्रयासरत थे, पर न जाने किसकी नजर लग गयी कि हम तीव्रतर विकास की उस आशापूर्ण रफ्तार को पकड़ नहीं पाये, जिसकी हमें जरूरत थी और परिणामस्वरूप हम पिछड़ते चले गये. आज भी देश में समस्याएं मुंह बाये जस की तस खड़ी हैं.
हर जगह मारामारी है, लूट है, छल–प्रपंच है. कोई गरीबों की रोटी छीन रहा है, तो कोई बहू–बेटियों की आबरू लूट रही है. सड़क पर तड़प रहे लोगों को देखने वाला कोई नहीं! ऐसी आजादी हमारे किस काम की, जहां हम स्वतंत्र तो हैं, पर खुद को संकीर्ण, विवश, लाचार और असहाय महसूस कर रहे हैं. हम भूल गये उन बलिदानों को जिसकी बदौलत हमें यह देश मिला.
सोने की चिड़िया सरीखे इस देश को नोंच कर हमने प्लास्टिक का भी नहीं छोड़ा. आज चहुंओर विकास की चर्चा है, पर असली विकास है कहां? क्या केवल सभाओं में भाग लेने और लंबे–चौड़े भाषण देने से ही विकास हो जायेगा या जमीनी स्तर पर कुछ प्रयास भी किये जायेंगे?
।। सुधीर कुमार ।।
(हंसडीहा, दुमका)