हमें यह तसवीर बदलनी ही होगी
पिछले अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर महिलाओं के सम्मान में बहुत कुछ बोले और लिखे गये थे. महिलाओं को देवी का रूप और शक्ति का प्रतीक माननेवाले प्राचीन और आधुनिक विचाराराओं के बीच यह समझने का प्रयास करें कि उस मार्च से इस मार्च के दौरान हमने कितना पाया और कितना खोया है? क्या महिलाओं को […]
पिछले अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर महिलाओं के सम्मान में बहुत कुछ बोले और लिखे गये थे. महिलाओं को देवी का रूप और शक्ति का प्रतीक माननेवाले प्राचीन और आधुनिक विचाराराओं के बीच यह समझने का प्रयास करें कि उस मार्च से इस मार्च के दौरान हमने कितना पाया और कितना खोया है?
क्या महिलाओं को उचित सम्मान मिला? अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस एक जुमला बन कर तो नहीं रह गया? ऐसे ढेर सारे सवाल आज अनुत्तरित हैं. हमने बचपन में अहिल्या, सीता, द्रौपदी की ही कहानियां सुनीं हैं. सवाल तब भी थे, सवाल अब भी हैं. 16/12 की घटना इतिहास के पन्नों में दर्ज एक दास्तान है, जो महज एक लड़की की मौत की कहानी नहीं, बल्कि समाज की खोखली सोच की तसवीर है. यह तसवीर बदलनी होगी. इसके लिए ‘सम्मान का एक दिन’ नहीं पूरी जिंदगी कम है.
एमके मिश्र, रांची