अब गमलों में सिमट गये हैं हमारे बगीचे
कुछ दिनों पहले किसी अखबार में एक लाइन पढ़ी थी– पहले बगीचों में गमले होते थे और अब गमलों में बगीचे होते हैं. सही ही तो है. रांची में दस–बीस साल पहले फ्लैट कहीं–कहीं ही नजर आते थे. और अब जहां देखो वहां फ्लैट और बड़ी–बड़ी इमारतें ही दिखायी देती हैं. पहले घर छोटा हो […]
कुछ दिनों पहले किसी अखबार में एक लाइन पढ़ी थी– पहले बगीचों में गमले होते थे और अब गमलों में बगीचे होते हैं. सही ही तो है. रांची में दस–बीस साल पहले फ्लैट कहीं–कहीं ही नजर आते थे. और अब जहां देखो वहां फ्लैट और बड़ी–बड़ी इमारतें ही दिखायी देती हैं. पहले घर छोटा हो या बड़ा, सबमें हरियाली दिखती थी. अब मकानों और बंगलों की जगह ऊंचे–ऊंचे अपार्टमेंटों ने ले ली है.
अगर किसी मोहल्ले में किसी मकान को तोड़कर अपार्टमेंट बनाया गया, तो उसकी देखा–देखी और लालच में पड़ कर अन्य घरों के मालिकों ने भी अपनी जमीन और मकान को बिल्डरों के हाथों में कन्वर्सन पर दे दिया. नतीजतन, एक या दो तल्ले के मकान को तोड़ कर पांच, सात, दस तल्ले के अपार्टमेंट बनने लगे. इनमें एक या दो फ्लोर जमीन मालिक को मिलते हैं और बाकियों को बिल्डर बेच देते हैं.
अब ऐसे में फायदा तो जमीन मालिकों को होता है, और लोगों को रिहाइश की समस्या का भी समाधान होता है, लेकिन शहर की हरियाली खत्म हो रही है. मन बहलाने के लिए हम गमलों को बगीचा मानने लगे हैं.
।। शीला प्रसाद ।।
(बरियातू, रांची)