कोई किसानों की भी आवाज सुने
देश के सर्वहारा वर्ग के मस्तक पर आज एक बार फिर चिंता की लकीरें उभर आयी हैं. यह चिंता स्वाभाविक भी है. सरकार की कानून बनाने को लेकर बेचैनी और सामाजिक कार्यकर्ताओं की नाराजगी के बीच आम जनता असल सच्चाई से अनजान है. यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि चंद दिनों पहले भूमि अधिग्रहण विधेयक में बदलाव […]
देश के सर्वहारा वर्ग के मस्तक पर आज एक बार फिर चिंता की लकीरें उभर आयी हैं. यह चिंता स्वाभाविक भी है. सरकार की कानून बनाने को लेकर बेचैनी और सामाजिक कार्यकर्ताओं की नाराजगी के बीच आम जनता असल सच्चाई से अनजान है.
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि चंद दिनों पहले भूमि अधिग्रहण विधेयक में बदलाव की चर्चा हमने सुनी और अब यह कानून (संशोधित) बनने जा रहा है, लेकिन जिन लोगों पर इसका अंतिम प्रभाव पड़ेगा, उसे कहीं न कहीं इस प्रक्रि या में नजरअंदाज किया जा रहा है. एक तरफ किसान अपने माली हाल से तंग होकर आत्महत्या करने को मजबूर हैं, तो दूसरी तरफ सरकार उन्हें बेसहारा करने पर तुली है.यह देश के लिए उचित नहीं है.
दरअसल बीते कुछ दशकों के दौरान देश में विकास की परिभाषा ही बदलती जा रही है. औद्योगिक समाज बनाने की इस होड़ में देश के आम जनता की आवाज दबती जा रही है. यहां के लोग खुश हैं कि नहीं, उनका जीवन कैसे बीत रहा है, कहीं विकास की इस अंधाधुंध रेस में कोई पीछे छूट तो नहीं रहा है आदि गंभीर मुद्दों से किसी भी सरकार का कोई वास्ता नहीं. सरकारें आती हैं, कानूनें बनाती हैं, लेकिन समस्या यह है कि उसका कभी पुनर्मूल्यांकन नहीं होता. चंद लोग ही फायदे-नुकसान की चर्चा करते हैं और अवाम पर एक नया कानून थोप दिया जाता है.
कहीं न कहीं इस प्रक्रिया में वो कमजोर आवाजें दब जाती हैं, जिस पर ध्यान दिया जाये, तो निश्चय ही देश के लिए टर्निग प्वाइंट साबित हो सकता है. क्यों हम विकास को उस नजरिये से देख रहे हैं, जहां एक वर्ग के हितों की रक्षा तो की जाती है, लेकिन एक बड़े वर्ग को परेशानियों में जकड़ दिया जाता है. यह सबका साथ, सबका विकास को चिढ़ाता है.
सुधीर कुमार, गोड्डा