हर भूखा आदमी बिकाऊ नहीं होता
डॉ बुद्धिनाथ मिश्र वरिष्ठ साहित्यकार भारती जी जितने खुशमिजाज और संकोची थे, उतने ही अनुशासनप्रिय और स्वाभिमानी भी थे. पुरस्कारों, आलोचकों की प्रशस्तियों से हमेशा दूर रहनेवाले. उनके साहित्यिक अवदान की तुलना में उन्हें पुरस्कार नाम मात्र ही मिले. होली का मुख्य आकर्षण भाभी ही होती है. उसमें भी अगर पुष्पा भाभी (डॉ पुष्पा भारती) […]
डॉ बुद्धिनाथ मिश्र
वरिष्ठ साहित्यकार
भारती जी जितने खुशमिजाज और संकोची थे, उतने ही अनुशासनप्रिय और स्वाभिमानी भी थे. पुरस्कारों, आलोचकों की प्रशस्तियों से हमेशा दूर रहनेवाले. उनके साहित्यिक अवदान की तुलना में उन्हें पुरस्कार नाम मात्र ही मिले.
होली का मुख्य आकर्षण भाभी ही होती है. उसमें भी अगर पुष्पा भाभी (डॉ पुष्पा भारती) मिल जाएं, तो होली का रंग ही कुछ अलग हो जाता है. सो, इस बार मेरी होली की बोहनी बहुत अच्छी हुई. पुष्पा भाभी केंद्रीय साहित्य अकादमी और बिरला फाउंडेशन के आमंत्रण पर दिल्ली आयी थीं, ‘धर्मवीर भारती की रचनाओं के अन्त:सूत्र’ पर बोलने के लिए. पद्मा सचदेव जी भी थीं. शुरू हुआ होली की पुरानी यादों का दौर. पुष्पा जी ने बताया कि एक बार होली में विद्या निवास मिश्र जी सपत्नीक मुंबई में भारती जी के घर होली के दिनों में ठहरे थे. भारती जी ने अपने देवरत्व का प्रयोग करते हुए पंडितानी भाभी को छेड़ दिया. फिर क्या था, डेढ़ पसली के भारती जी छत पर बड़ी देर तक मिश्रइन भौजी के आगे-आगे दौड़ते-भागते दिखायी पड़े.
बहुत कम लोगों को मालूम है कि भारती जी खुदागंज कस्बा (शाहजहांपुर) के एक धनी और दबंग जमींदार परिवार के वारिस थे. उनके बाबा के साथ हमेशा गनर चलता था. लेकिन पिता चिरंजीलाल वर्मा को यह सब पसंद नहीं था. इसलिए रुड़की इंजीनियरिंग कॉलेज से ओवरसीयरी की और बर्मा के जंगलों में काम करने लगे. वहां से प्रचुर धन अर्जित कर वे पहले मिर्जापुर में और बाद में इलाहाबाद के अतरसुइया में रहने लगे. उनके अपरिग्रही स्वभाव से द्रवित होकर, एक बार उनकी मां ने बहुत आग्रह कर अपने सोने के गहनों की पोटली संदूक से निकाल कर उन्हें दे दी.
अलसुबह जब बैलगाड़ी से वे इलाहबाद जा रहे थे, तो डकैतों ने धावा बोल दिया. वफादार गाड़ीवान ने उन्हें पास के पेड़ पर चढ़ा दिया. बाद में जब गाड़ीवान ने उन्हें बताया कि डकैत उनके भाई-बंधु ही थे, तो विरक्त होकर उन्होंने कभी खुदागंज न लौटने का व्रत ले लिया. इस प्रकार यह परिवार इलाहाबाद का स्थायी बाशिंदा हो गया.
भारती जी का जन्म अतरसुइया में ही हुआ. दस मृत संतानों के बाद एक भाई और एक बहन. नाम बच्चन पड़ा. बचपन में जमींदारी के दो हिस्से रोमांचित करते थे. पहला शस्त्रगार और दूसरा दरवाजे पर हिरन, खरगोश आदि जंगली जानवर, जो पालतू बन गये थे. शस्त्रों के प्रति उनके आकर्षण ने ही उन्हें बांग्लादेश युद्ध में पहली पंक्ति में खड़े होकर‘धर्मयुग’ के लाखों पाठकों तक सजीव विवरण पहुंचाने के लिए प्रेरित किया था. बांग्लादेश के खेतों में खिले सरसों के फूल हेलीकॉप्टर से देख कर वे जितने पुलकित हुए थे, उतने ही मर्माहत हुए उन खेतों में फैली अनगिनत लाशों को देख कर.
गांव में खेतों को पटाने के लिए दिन-रात चलती रहट का संगीत उन्हें मंत्रमुग्ध कर देता था. पशुओं का प्रेम उन्हें मुंबई के ‘शाकुंतल’ वाले फ्लैट में भी खरगोश पालने के लिए बाध्य कर दिया था. उन्हें बागवानी का भी बहुत शौक था, जो इलाहाबाद में परवान चढ़ा. मुंबई में भी अपनी व्यस्त दिनचर्या से समय निकाल कर छत पर बागवानी करते थे. खाना खाने में उनकी कभी रुचि नहीं रही. बचपन में विधवा बुआ (अइया) घंटों कहानी सुना कर उन्हें खाना खिलाती थीं. बाद में परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं रही. भारती जी को पढ़ने का बहुत शौक था. किताबें खरीदना मुश्किल था. इसलिए वाचनालय में देर तक बैठ कर किताबें पढ़ते रहते थे. कविता लिखना उन्होंने दस वर्ष की उम्र में ही शुरू कर दिया था. उनकी एक छोटी-सी डायरी में अनेक छंदोबद्ध कविताएं लिखी हुई हैं. उनमें से एक कविता है:
नये-नये विहान में / असीम आसमान में/ मैं सुबह का गीत हूं..
तेरह वर्ष की उम्र में पिता जी चल बसे और आर्य समाजी मां ने भी उन्हें दूर के रिश्ते के एक भाई के यहां छोड़ कर एक गुरुकुल में पढ़ाने चली गयीं. छात्रवस्था में पढ़ाई का खर्च निकालने के लिए भारती जी कुछ घरों में ट्यूशन करते थे. उनमें एक परिवार के सभी लोग उन्हें प्यार करने लगे थे. उनमें एक लड़की भी थी, जो उनसे उम्र में बड़ी थी. ‘गुनाहों का देवता’ की नायिका सुधा वही कन्या थी. इंटर में पढ़ते हुए उन्होंने गांधीजी के आह्वान पर पढ़ाई भी छोड़ दी थी. बीए में पढ़ते हुए उन्होंने पद्मकांत मालवीय की ‘अभ्युदय’ पत्रिका और इलाचंद्र जोशी की ‘संगम’ पत्रिका में संपादन किया. जोशी जी और उनकी पत्नी भारती जी को बहुत मानते थे. उनकी पहली पुस्तक ‘मुर्दो का गांव’ 1946 में छपी, जब वे बीस वर्ष के थे. 23 वर्ष के वय में उनका ‘स्वर्ग और पृथ्वी’ काशी के मुरारीलाल केडिया ने छपवाया था. भारती जी के पास उसकी एक भी प्रति नहीं बची, तो यह भार उन्होंने मुङो दिया. केडियाजी से एक प्रति निकलवाने के लिए मुङो घंटे भर उनके घर कविता-पाठ करना पड़ा था.
खुदागंज वाली कोठी के पास एक पंडितजी रोज ‘गीतगोविंद’ का सस्वर पाठ करते थे. वह भाव इनमें गहरे पैठ गया. भारती जी की ‘कनुप्रिया’ और ‘अंधा युग’ के रागात्मक कृष्ण उसी संस्कार से उपजे थे. उनका मूल स्वर ‘कनुप्रिया’ का था, जो बारंबार उनकी कविताओं में रागात्मक रिश्तों को गाता है. इनके अलावा ‘मेरी गोद में’, ‘भागवत के पृष्ठ’ जैसी तमाम कविताएं हैं, जिनमें प्रेम अपनी पूरी ऊर्जा के साथ अभिव्यक्त हुआ है. दूसरी ओर ‘अंधा युग’ का स्वर था, जो उनके जमींदारी संस्कार और मार्क्सवाद के गहन मंथन से निकला था. यह आनुवांशिक संस्कार उन्हें कभी झुकने नहीं देता था :
कह दो उनसे/जो खरीदने आये हों तुम्हें/हर भूखा आदमी बिकाऊ नहीं होता है!
वे जितने खुशमिजाज और संकोची थे, उतने ही अनुशासनप्रिय और स्वाभिमानी भी थे. हर पुरानी जमीन को तोड़ कर नयी जमीन बनानेवाले. पुरस्कारों, आलोचकों की प्रशस्तियों से हमेशा दूर रहनेवाले. उनके साहित्यिक अवदान की तुलना में उन्हें पुरस्कार नाम मात्र ही मिले, जिन्हें उन्होंने बेमन से स्वीकार किया. समकालीन वामपंथियों की राजनीति से उन्हें वितृष्णा थी. आक्रोश में वे दो-दो दिनों तक न खाते, न सोते, न किसी से बात करते थे और तब ‘मुनादी’ जैसी कविताएं लिख कर शांत होते थे. वे मानते थे कि सत्ता का कौरा खाकर जीनेवाले रचनाकारों से अच्छे साहित्य की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए.
गीतधर्मिता उनके राग-राग में सरोद की तरह बजती थी. उन्होंने यदि ‘धर्मयुग’ में गीत को प्रश्रय नहीं दिया होता, तो अत्यल्प वयस में मेरी पीढ़ी के गीतकार चर्चित न होते. ‘धर्मयुग’ के संपादक के रूप में उन्होंने जो कीर्तिमान स्थापित किया, वह आत्माहुति देकर ही संभव होता है. उनके लिखे छोटे-छोटे स्लिप आज भी साहित्यकारों के लिए अमूल्य थाती हैं. हमें पुष्पा भाभी का कृतज्ञ होना चाहिए कि उन्होंने अपने साहित्यकार पति के विपुल लेखन को बहुत संजो कर रखा है. उस दिन उनकी पीली साड़ी हमें सरसों के खेतों की याद दिला रही थी.