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अलग नहीं रह गयी है ”आप”

सुहास पालशीकर राजनीतिक विश्लेषक आम आदमी पार्टी में मचे बवंडर की रूपरेखा लोकसभा चुनाव के दौरान ही लिख दी गयी थी. हालांकि लोकसभा चुनाव में पार्टी को मिली भारी पराजय के बाद उम्मीद थी कि उसके नेता आपसी संवाद के जरिये आंतरिक झगड़े को दूर करने की कोशिश करेंगे, लेकिन ऐसा हो न सका. इस […]

सुहास पालशीकर

राजनीतिक विश्लेषक

आम आदमी पार्टी में मचे बवंडर की रूपरेखा लोकसभा चुनाव के दौरान ही लिख दी गयी थी. हालांकि लोकसभा चुनाव में पार्टी को मिली भारी पराजय के बाद उम्मीद थी कि उसके नेता आपसी संवाद के जरिये आंतरिक झगड़े को दूर करने की कोशिश करेंगे, लेकिन ऐसा हो न सका. इस समय आप में जारी आंतरिक कलह भारतीय राजनीति के किसी भी अन्य दल से भिन्न नहीं है. पार्टी के झगड़े को देख कर कहा जा सकता है कि आज कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच खास अंतर नहीं रह गया है. फर्क सिर्फ इतना है कि कांग्रेस को आज नेतृत्व की तलाश है, जबकि आप में शीर्ष नेतृत्व को लेकर संशय नहीं है.

जनकल्याणकारी नीतियां लागू करने के वादे के साथ दिल्ली की सत्ता पर जबरदस्त तौर पर वापसी करने के कुछ दिनों बाद ही आप के समक्ष गंभीर चुनौतियां खड़ी हो गयी हैं. एक ओर पार्टी के भीतर असंतोष की आवाज मुखर हो रही है, तो दूसरी ओर बड़ी-बड़ी घोषणाओं को पूरा करने की चुनौती है. पार्टी का गहराता आंतरिक संकट उसकी छवि को प्रभावित कर रहा है. आप का बौद्धिक चेहरा माने जानेवाले योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण पर जिस तरह के आरोप पार्टी ने लगाये हैं, उससे पार्टी की छवि को ही गहरा धक्का लगा है. केजरीवाल के बाद इन दोनों नेताओं की पहचान राष्ट्रीय स्तर पर रही है. आप में दूसरा कोई चेहरा नहीं है, जो इनके कद के बराबर का हो.

भारत के राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र की बात सिर्फ एक जुमला भर है. पार्टियों में गुटों का होना कोई अस्वाभाविक घटना नहीं है. पार्टी का गठन ही कई घटकों के मिलने से होता है. राजनीतिक पार्टियों का संचालन इसके विभिन्न घटकों के बीच बेहतर समन्वय की मांग करता है. जब सबकुछ ठीक-ठाक चलने लगता है, तब पार्टियां समझने लगती हैं कि विभिन्न घटकों के साथ शांति से पार्टी चलाना आसान है, लेकिन जब घटकों के बीच विवाद बढ़ने लगता है तब पार्टी टूट की कगार पर पहुंच जाती है. यह बात आप पर भी लागू होती है. आप की घोषित सोच रही है कि आंतरिक लोकतंत्र से विवाद का हल किया जा सकता है.

भाजपा में आंतरिक घमासान की स्थिति में संघ दखल देता है. मौजूदा समय में कांग्रेस इस मामले में असहाय दिख रही है. इंदिरा गांधी के जमाने में कांग्रेस में आंतरिक बहस पर रोक लग गयी थी. गंठबंधन सरकारों के दौर में पार्टियों के अंदर बहसों की प्रक्रिया तेज हुई. हालांकि आंतरिक लोकतंत्र का मतलब सिर्फ बहस करना नहीं है. अगर ऐसा होता तो वाम दल और कुछ हद तक आप इस मामले में बेहतर साबित होते.

आंतरिक लोकतंत्र का मतलब है विभिन्न धड़ों के बीच एक-दूसरे की स्वीकार्यता और संवाद होना. आप खुद को दूसरी पार्टियों से अलग होने का दावा करती रही है. लेकिन, दिल्ली चुनाव के दौरान पार्टी ने व्यक्ति केंद्रित प्रचार किया और इससे उसका यह दावा कमजोर हुआ कि पार्टी ने बहसों के आधार पर वोट हासिल किया है. दिल्ली चुनाव की पहली और मौजूदा जीत को पार्टी ने नेतृत्व की जीत मान लिया. अच्छी बात है कि पार्टी अपने नेता पर गर्व करे, लेकिन व्यक्ति केंद्रित होना अलग बात है. पार्टी खुद को बहस आधारित पार्टी कहती रही, लेकिन वास्तव में वह व्यक्ति केंद्रित पार्टी बन गयी.

पार्टी को इस मायने में लोकतांत्रिक कहा जा सकता है कि दो वरिष्ठ नेताओं को पीएसी से हटाने का फैसला बहुमत से लिया गया. लेकिन, भारत के राजनीतिक दल आंतरिक लोकतंत्र और शीर्ष नेतृत्व के अधिनायकवाद के बीच झूलते रहे हैं और आप में कलह का हालिया घटनाक्रम भी इससे अलग नहीं दिखता है. जकल पार्टियां मीडिया केंद्रित होती जा रही है. हर कोई मीडिया के उपयोग को पसंद कर रहा है. भ्रष्टाचार के खिलाफ जंतर मंतर पर अन्ना हजारे के आंदोलन से लेकर आप के गठन तक में मीडिया का भरपूर उपयोग किया गया. मीडिया के जरिये ही आप ने खुद को राष्ट्रीय पटल पर स्थापित किया.

यही वजह है कि आप को एक समय में मीडिया पार्टी भी कहा जाने लगा था. अब संकट के मौजूदा दौर में भी आप की आंतरिक लड़ाई मीडिया के जरिये ही लड़ी जा रही है. ऐसा लगता है कि पार्टी के लिए मीडिया आंतरिक लोकतंत्र और संकट प्रबंधन का प्रमुख जरिया है. लेकिन, मीडिया पर अत्यधिक निर्भरता के कारण ही आप में विभिन्न समूहों के बीच समन्वय स्थापित करने की प्रक्रिया कमजोर हुई है.अक्सर देखा गया है कि पार्टियों का गठन मूल्यों और सिद्धांतों के आधार पर किया जाता है, लेकिन समय के साथ नेता इन मूल्यों और सिद्धांतों के साथ समझौता करने लगते हैं.

आप भी मूल्यों के आधार पर बनी, लेकिन सत्ता के नजदीक पहुंचते ही उन मूल्यों से समझौते होने लगे. 2013 में दिल्ली में बहुमत नहीं मिलने के बावजूद कांग्रेस के सहयोग से सरकार बनी और इस फैसले से ही पार्टी में आंतरिक फूट के बीज पड़ गये. हालांकि तब आतंरिक संकट परदे के बाहर नहीं आया, क्योंकि सरकार कुछ दिन ही चल पायी. लोकसभा चुनावों में मिली हार ने आंतरिक संकट को कुछ समय के लिए दबा दिया, लेकिन दिल्ली विधानसभा चुनाव में मिली अप्रत्याशित सफलता ने पार्टी को व्यक्ति केंद्रित बना दिया. ऐसे में देर-सबेर पार्टी के आंतरिक संकट को उभरना ही था. दिक्कत यह है कि पार्टी ने दिल्ली की जीत को एक व्यक्ति की जीत मान लिया.

इसी सोच के कारण पार्टी में विरोधी धड़े को निबटाने की कोशिश शुरू हो गयी, ताकि भविष्य में किसी प्रकार की चुनौती का सामना नहीं करना पडे. आप के मौजूदा संकट से स्पष्ट है कि यह भी अन्य दलों की तरह एक सामान्य पार्टी बन कर रह गयी है, जहां पार्टी से जुड़े फैसले लेने का अधिकार कुछ व्यक्तियों तक सीमित है. कलह के हालिया घटनाक्रम को देखते हुए निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि आप में न आंतरिक लोकतंत्र है और न ही वह मूल्यों की राजनीति कर रही है.

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