बदल रहा ‘आप’ का चाल-चरित्र
आम आदमी पार्टी (आप) का गठन अन्ना हजारे के नेतृत्व में चलाये गये जनलोकपाल आंदोलन के दूसरे भाग की परिणति है. तब ऐसा लग रहा था कि भारतीय परंपरागत राजनीति से इतर एक नयी राजनीति की शुरुआत हुई है. आरंभ के कुछ महीनों तक भारतीय जनमानस और राजनेताओं को ऐसा आभास भी हुआ. परंतु, ‘आप’ […]
आम आदमी पार्टी (आप) का गठन अन्ना हजारे के नेतृत्व में चलाये गये जनलोकपाल आंदोलन के दूसरे भाग की परिणति है. तब ऐसा लग रहा था कि भारतीय परंपरागत राजनीति से इतर एक नयी राजनीति की शुरुआत हुई है. आरंभ के कुछ महीनों तक भारतीय जनमानस और राजनेताओं को ऐसा आभास भी हुआ. परंतु, ‘आप’ के संयोजक एवं दिल्ली के नव-निर्वाचित मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने चिरपरिचित तानाशाह रवैया अख्तियार कर ही लिया.
अब आतंरिक लोकतंत्र का ढिंढोरा पीटनेवालों की कलई उतर गयी है. संयोजक पद पर केजरीवाल के बने रहने पर सवाल करने और आतंरिक लोकतंत्र की वकालत करने पर पार्टी के वरिष्ठ सदस्यों योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण को राजनीतिक सलाहकार समिति (पीएसी) से बाहर कर दिया गया. एक बात अब सबके सामने स्पष्ट हो रही है कि ‘आप’ में केजरीवाल का विरोध करनेवालों की खैर नहीं. इस पार्टी में भी सत्ता आदर्श और सिद्धांत का गला घोंटती नजर आ रही है. पिछले दिनों शुरू हुई, पार्टी में नाटक-नौटंकी से तो ऐसा ही नजर आ रहा है.
नये-नवेले विधायक और सदस्यों की भीड़ को केजरीवाल कैसे सम्हाल पायेंगे, यह देखना महत्वपूर्ण होगा. एक नये राजनीतिक विकल्प के रूप में कितने दिनों तक यह पार्टी टिक पायेगी, इस पर भी लोगों के मन में संदेह पैदा हो रहा है. चाल-चरित्र की गाथा जो छुपी हुई थी, वह अब सामने आ रही है और यह भी देखना दिलचस्प होगा कि कब तक यह पार्टी अन्य ाघ दलों से खुद को संक्रमित होने से बचा पाती है. अगर इसका नैतिक पतन होता भी है, तो कोई खास फर्क पड़नेवाला नहीं है, क्योंकि हम भारतीय निराश होने के अभ्यस्त हो गये हैं.
मनोज आजिज, जमशेदपुर