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बड़ी लकीर खींचें आदिवासी युवा

जुल्म और शोषण के विरोध से उपजे दिशोम गुरु शिबू सोरेन ने विश्व आदिवासी दिवस के अवसर पर जो बातें कहीं, वह अब तक के उनके अनुभव की सच्चई है. साथ ही आदिवासी होने के नाते उनका दर्द भी. वास्तव में आदिवासियों के कल्याणार्थ जितनी भी नीतियां बनीं, नियम कानून बने, योजनाएं बनीं और नित […]

जुल्म और शोषण के विरोध से उपजे दिशोम गुरु शिबू सोरेन ने विश्व आदिवासी दिवस के अवसर पर जो बातें कहीं, वह अब तक के उनके अनुभव की सच्चई है. साथ ही आदिवासी होने के नाते उनका दर्द भी. वास्तव में आदिवासियों के कल्याणार्थ जितनी भी नीतियां बनीं, नियम कानून बने, योजनाएं बनीं और नित बन भी रही हैं, इसका वास्तविक लाभ न तो कभी आदिवासियों तक पूरी तरह पहुंचा है और न ही निकट भविष्य में इसकी कोई संभावना है.

झारखंड अलग राज्य बना ही था आदिवासी-मूलवासियों के सर्वागीण विकास के लिए. हमारे चुने हुए प्रतिनिधि सत्तासीन हुए, जिनमें किसी ने झारखंड को जापान बनाने की घोषणा की, तो किसी ने जर्मनी. लेकिन हुआ क्या? बहरहाल, दिशोम गुरु ने इशारा किया है कि मेरिटोक्रेसी के इस दौर में मोहताजी का भाव हमें सही मायने में कभी आगे बढ़ने नहीं देगा. दुखद पहलू यह है कि झारखंडियों को रोजगार में प्राथमिकता देने की बातें होती हैं और यही अब तक पता नहीं है कि आखिर झारखंडी है कौन! आदिवासियों को रिझाने के लिए असंख्य घोषणाएं, योजनाएं पेश की जाती हैं, फिर भी अब तक बहुसंख्य आदिवासी लाचार और मोहताज बने हुए हैं. कुछ समर्थ लोग मुख्यधारा में शामिल हो रहे हैं.

अब अपने शोषण-दमन या अवरुद्ध विकास के लिए आदिवासी होने का बहाना करने से काम नहीं चलने वाला. कोई विज्ञान यह नहीं कहता कि आदिवासियों की बौद्धिक या शारीरिक क्षमता अन्य जन से कमतर है. गुरुजी ने सही कहा है कि वर्तमान हालात में किसी को यहां से बेदखल करना असंभव है. ऐसे में अब ईष्र्या-विद्वेष के बदले खुद को सामथ्र्यवान बनाने का समय है, वरना हम सिर्फ शराबी, जुआरी, उग्रवादी ही बनकर रह जायेंगे.

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