इन संबोधनों में संकल्प कहां!
।।विश्वनाथ सचदेव।।(वरिष्ठ पत्रकार)यह एक संयोग था कि इस पंद्रह अगस्त को मैं राजकोट में था. कभी सौराष्ट्र की राजधानी रहे राजकोट की गणना अब गुजरात के चार बड़े शहरों में होती है. यह भी संयोग ही था कि उस सुबह जब मैं राष्ट्र के नाम प्रधानमंत्री के लाल किले से सीधे संबोधन और कुछ देर […]
।।विश्वनाथ सचदेव।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
यह एक संयोग था कि इस पंद्रह अगस्त को मैं राजकोट में था. कभी सौराष्ट्र की राजधानी रहे राजकोट की गणना अब गुजरात के चार बड़े शहरों में होती है. यह भी संयोग ही था कि उस सुबह जब मैं राष्ट्र के नाम प्रधानमंत्री के लाल किले से सीधे संबोधन और कुछ देर बाद भुज से गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के पलटवार को टीवी पर सुन रहा था, तब मेरे साथ गुजरात के एक वरिष्ठ पत्रकार और एक वरिष्ठ गुजराती कवि भी थे. पलटवार शब्द का इस्तेमाल मैंने इसलिए किया है, क्योंकि इसके एक दिन पहले ही मोदी घोषणा कर चुके थे कि पंद्रह अगस्त को राष्ट्र दो संबोधन सुनेगा, एक प्रधानमंत्री का और दूसरा मेरा. जिस तरह इस प्रकरण को मेरी कमीज के उजलेपन और तेरी कमीज के उजलेपन में सीमित कर दिया गया था, निश्चित रूप से वह स्वाधीनता दिवस की गरिमा के अनुरूप नहीं लग रहा था. हम तीनों ही इस बात से सहमत थे कि भले ही दोनों भाषण आगामी चुनावों को दृष्टि में रख कर तैयार किये गये थे, पर मोदी ने जिस तरह की भाषा-शैली का इस्तेमाल किया था, वह आकर्षक तो था, प्रिय नहीं.
पहले प्रधानमंत्री के भाषण की बात. यह भाषण अकसर औपचारिक होता है, लेकिन राष्ट्र यह अपेक्षा तो करता ही है कि देश का प्रधानमंत्री देश को विश्वास में लेने का प्रयास करेगा. जनता को वस्तुस्थिति बतायेगा. अपनी सरकार की उपलिब्धयों का बखान वह भले ही करे, पर उन कमियों-खामियों का एहसास भी करायेगा, जिन्हें ठीक किया जाना जरूरी है. साथ ही, यह भी उम्मीद होती है कि देश का प्रधानमंत्री वह राह भी सुझायेगा जिस पर चल कर राष्ट्र की अपेक्षाएं और आशाएं पूरी हो सकती हैं. फिर, चूंकि यह प्रधानमंत्री के वर्तमान कार्यकाल का लाल किले से राष्ट्र के नाम आखिरी संबोधन था, इसलिए उम्मीद यह भी की जा रही थी कि वे अपनी सरकार के अधूरे रह गये आश्वासनों पर खेद प्रकट करते हुए उन कारणों का भी उल्लेख करेंगे, जो वर्तमान स्थितियों के लिए जिम्मेवार हैं.
वस्तुत: मौका प्रधानमंत्री के लिए अपने नौ साल के कार्यकलाप का लेखा-जोखा देने का था. उन्होंने कोशिश भी की, पर भ्रष्टाचार, महंगाई जैसे मुद्दे पर जिस तरह की साफगोई की अपेक्षा थी, वह पूरी नहीं हुई. चुनाव के माहौल के बावजूद यदि प्रधानमंत्री चाहते तो मात्र यह कह कर चुप नहीं रह जाते कि ‘स्थिति सुधारने के लिए हम पूरी मेहनत कर रहे हैं.’ देश के प्रधानमंत्री के रूप में ही नहीं, देश के रहबर के रूप में भी उनका यह बताना जरूरी था कि जो सफलताएं नहीं मिलीं, वे क्यों नहीं मिलीं. प्रधानमंत्री इस मौके का लाभ उठा सकते थे. ईमानदार, पर कमजोर नेता की छवि को एक ईमानदार और दृढ़ संकल्पवाले नेता में बदलने की कोशिश कर सकते थे.
अब बात करें पीएम बनने की लालसा रखनेवालों में सबसे आगे खड़े गुजरात के मुख्यमंत्री की. उन्होंने घोषणा कर दी थी कि देश स्वतंत्रता दिवस पर दो भाषण सुनेगा- एक लाल किले से और दूसरा लालन के मैदान से. यह मैदान भुज के एक स्कूल का है. चूंकि यह भाषण प्रधानमंत्री के भाषण के बाद दिया जाना था, इसलिए यह तो तय था कि मोदी प्रधानमंत्री द्वारा उठाये गये मुद्दों का हवाला देंगे, पर उनका 50 मिनट का यह भाषण कुल मिला कर प्रधानमंत्री को जवाब देने तक ही सीमित रहा. प्रधानमंत्री ने राष्ट्र-ध्वज फहराया था, गुजरात के मुख्यमंत्री सारा समय अपना झंडा लहराते रहे. प्रधानमंत्री ने राष्ट्र को संबोधित किया था, मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री को ही संबोधित करते रहे. एक अखबार ने गिनती करके बताया है कि 50 मिनट के अपने भाषण में मोदी ने 49 बार प्रधानमंत्री जी का संबोधन किया! मनमोहन सिंह ने अपने भाषण में जो कहा, मोदी ने उसकी आलोचना तो की ही, प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में जो नहीं कहा, उसके लिए भी उनकी आलोचना करना मोदी ने जरूरी समझा. मोदी एक अच्छे व प्रभावशाली वक्ता हैं. उनके प्रशंसक कहते हैं कि वे श्रोताओं को संबोधित करने की कला जानते हैं. 50 मिनट के इस भाषण में मोदी ने अपनी इस कला का अच्छा परिचय दिया. लेकिन उन्होंने जो कुछ कहा, और जिस तरह से कहा, उसमें उस गरिमा का अभाव था, जिसकी उम्मीद ऐसे अवसर पर किसी मुख्यमंत्री से की जाती है.
स्वयं भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने भी इस ओर संकेत किया है. स्वतंत्रता दिवस पर अपने संबोधन में उन्होंने स्पष्ट कहा कि यह किसी की आलोचना करने का अवसर नहीं है. मैं उन्हें उद्धृत करना चाहता हूं- आज मैं सारे देश को स्वतंत्रता दिवस की बधाई देता हूं. मैं चाहता हूं कि यह भावना विकसित हो और हम समङों कि बिना किसी की आलोचना किये भी राष्ट्र में अपार संभावनाएं हैं. ज्ञातव्य है कि आडवाणी जी ने यह बात गुजरात के मुख्यमंत्री के उस भाषण के बाद कही थी, जिसमें उन्होंने 49 बार प्रधानमंत्री को कोसा था!
निश्चित रूप से स्वतंत्रता दिवस अथवा गणतंत्र दिवस जैसे अवसर एक स्वाधीन राष्ट्र के नागरिक के रूप में देश की उपलब्धियों पर गर्व करने और उन अधूरी आकांक्षाओं को पूरा करने का संकल्प लेने के होते हैं, जो एक स्वाभिमानी राष्ट्र का नागरिक होने के नाते स्वाभाविक रूप से मन में उपजती हैं. गुजरात के मुख्यमंत्री ने संकल्पों की इस बेला को आक्षेपों का अवसर बना दिया! उनकी शिकायत थी कि प्रधानमंत्री ने वही-वही कहा, जो देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू कहा करते थे. मसलन मनमोहन सिंह का यह कथन कि संकीर्ण और सांप्रदायिक विचारधारा से देश और लोकतंत्र कमजोर होगा. इसको बढ़ने से रोकना चाहिए. क्या इस बात को बार-बार समझने, दोहराये जाने की आवश्यकता नहीं है? क्या संकीर्णता और सांप्रदायिकता देश की एकता, अखंडता के लिए खतरा नहीं हैं? सच तो यह है कि नरेंद्र मोदी का पलटवार कुल मिला कर आलोचना के लिए आलोचना करने का उदाहरण बन कर रह गया था. ऐसा नहीं है कि उनकी सारी बातें गलत थीं, पर सही बातें भी जब गलत तरीके से और अनुचित अवसर पर कही जाती हैं, तो अपनी धार खो बैठती हैं.
गुजरात के मुख्यमंत्री के लिए वह अवसर अपने राज्य की जनता को संबोधित करने, उसे बेहतर कल के लिए आश्वस्त करने का था. राज्य के अपेक्षाकृत अविकसित हिस्सों के विकास का संकल्प लेने का था. यह सब उन्होंने नहीं किया. हां, उन्होंने प्रधानमंत्री को यह चुनौती अवश्य दी कि गुजरात और दिल्ली में विकास की स्पर्धा हो जाये, तो पता चल जायेगा कि दिल्ली की हुकूमत क्या कर रही है और गुजरात की सरकार क्या कर रही है. इस पर मेरे पास बैठे वरिष्ठ पत्रकार ने टिप्पणी की थी,सौराष्ट्र की राजधानी कहे जानेवाले राजकोट में एक दिन में सिर्फ बीस मिनट पानी आता है. किसी राजकोट को पर्याप्त पानी उपलब्ध कराने की बात मोदी कब कहेंगे? यह मौका था ऐसा संकल्प लेने का, लेकिन मोदी का संकल्प तो दिल्ली से जुड़ा है मेरे कवि मित्र की टिप्पणी थी!