आर्थिक सुधारों के दुष्परिणाम
।। उपेंद्र प्रसाद।। (वरिष्ठ आर्थिक पत्रकार) आर्थिक नीतियों की दिशा बदलने की आज सख्त जरूरत है. किसी विचार विशेष से चिपकने की प्रवृत्ति को त्याग कर अब वही करना चाहिए, जिससे देश और इसकी जनता का भला हो सके. काले शुक्रवार के बाद सोमवार को भी शेयर बाजार में गिरावट और डॉलर के मुकाबले रुपये […]
।। उपेंद्र प्रसाद।।
(वरिष्ठ आर्थिक पत्रकार)
आर्थिक नीतियों की दिशा बदलने की आज सख्त जरूरत है. किसी विचार विशेष से चिपकने की प्रवृत्ति को त्याग कर अब वही करना चाहिए, जिससे देश और इसकी जनता का भला हो सके.
काले शुक्रवार के बाद सोमवार को भी शेयर बाजार में गिरावट और डॉलर के मुकाबले रुपये की विनिमय दर के मामले में भारत को कोई राहत नहीं मिली है. हमारा आर्थिक संकट लगातार गहराता दिख रहा है. रुपये को स्थिर करने के सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक के तमाम कदम बेमानी साबित हो रहे हैं.
1991 में जब मनमोहन सिंह ने आर्थिक सुधार कार्यक्रमों की शुरुआत की थी, तब इसे लेकर अनेक आशंकाएं व्यक्त की गयी थीं. एक आशंका यह थी कि इससे भारत का रुपया अस्थिरता का शिकार हो जायेगा और 1980 के दशक में जो हाल कुछ लैटिन अमेरिकी देशों का हुआ था, वही भारत का भी हो सकता है.
गौरतलब है कि तब कुछ लैटिन अमेरिकी देशों में देशी मुद्रा विफल हो गयी थी और मुद्रास्फीति की दर 1000 फीसदी से भी ज्यादा हो गयी थी. अभी भारत में वैसी भयावह स्थिति तो पैदा नहीं हुई है, लेकिन जिस तरह से रुपया विदेशी बाजार में अपना मोल खो रहा है और देशी बाजार में भी महंगाई से इसका मूल्य कम हो रहा है, यह स्थिति जारी रही, तो भारत में भी वैसा ही आर्थिक संकट आ सकता है.
नयी आर्थिक नीतियों के तहत वर्तमान आर्थिक सुधारों का दौर 1991 में शुरू हुआ था. इस शुरुआत की अपनी एक पृष्ठभूमि है. भारत के सामने विदेशी मुद्रा भंडार का संकट खड़ा हो गया था. तब हमारे पास तीन सप्ताह के आयात बिल भरने लायक विदेशी मुद्रा नहीं बची थी. वह संकट राजीव गांधी के कार्यकाल में शुरू की गयी आर्थिक नीतियों के कारण पैदा हुआ था.
भारत राजीव गांधी के काल में ही अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की शरण ले चुका था और उसकी कुछ शर्तो के कारण आयात और निर्यात के बीच का गैप बढ़ रहा था. इस बढ़ते गैप के कारण भारत सबसे खराब किस्म का लघु अवधि ऋण ले रहा था, जिसकी ब्याज दर बहुत ज्यादा होती है. यानी वह संकट विदेशी कर्ज के जाल में फंसने और निर्यात बढ़ाने में हमारी विफलता का परिणाम था.
खाड़ी युद्ध के कारण तेल कीमतों का झटका भी देश को लग रहा था. इससे भारत का भुगतान संकट बेहद खराब हो गया था. संकट के उस भीषण समय में केंद्र में चंद्रशेखर प्रधानमंत्री और यशवंत सिन्हा वित्त मंत्री बने. तब सोना गिरवी रख कर हम अंतरराष्ट्रीय समुदाय में अपनी प्रतिष्ठा बचा पाने में कामयाब रहे थे. उसी बीच सरकार बदली.
मनमोहन सिंह वित्त मंत्री बने. फिर नयी आर्थिक नीतियों के तहत आर्थिक सुधार कार्यक्रमों की शुरुआत हुई, जो अब भी जारी है. इससे विकास दर तो बढ़ी, लेकिन आर्थिक विषमता भी बढ़ी है.
आर्थिक सुधारों के पिछले 22 सालों की यात्रा के बाद भारत आज एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है, जहां यह बहस छिड़ी हुई है कि क्या हम फिर से 1991 के संकट के दौर में पहुंच गये हैं? प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, जो 1991 में वित्त मंत्री थे, यह मानने के लिए तैयार नहीं हैं, लेकिन 1991 के पहले सात महीनों तक देश के वित्त मंत्री रहे यशवंत सिन्हा का कहना है कि हम 1991 के संकट के दौर में फिर वापस पहुंच चुके हैं.
आखिर सच्चाई क्या है? उस समय विदेशी मुद्रा का हमारा भंडार खाली हो गया था. यानी संकट विदेशी मुद्रा का था. आज संकट विदेशी मुद्रा का नहीं है, बल्कि संकट में अपना देशी मुद्रा रुपया है.
उस समय विदेशी मुद्रा का संकट दूर करने के लिए हमने संकट से मुक्त भारतीय रुपये का इस्तेमाल किया और उसका अवमूल्यन करना शुरू कर दिया. इस तरह रुपया रूपी गाय को दूह–दूह कर हमने विदेशी मुद्रा रूपी दूध प्राप्त किया और वह संकट हल हो गया. लेकिन आज तो वह गाय ही संकट में है.
उस समय जिसने हमें संकट से बचाया था, आज हम उसे ही नहीं बचा पा रहे हैं. भारतीय रिजर्व बैंक रुपये का अवमूल्यन रोकने के जो भी प्रयास कर रहा है, वे सभी के सभी विफल हो रहे हैं. नतीजे के रूप में रुपया लगातार गिरता जा रहा है.
अब रुपया अकेले नहीं गिर रहा है. उसके साथ–साथ सब कुछ गिर रहा है. हमारे शेयर बाजार लुढ़क रहे हैं और विदेशी मुद्रा भंडार भी खाली होता जा रहा है. हालात को देखते हुए विदेशी निवेशक अपना पैसा निकाल रहे हैं. अंतरराष्ट्रीय बाजार में यदि रुपया गिरेगा, तो यह घरेलू बाजार में अपना सिर ऊंचा करके नहीं रह सकता है.
रुपया देशी बाजार में भी बेलगाम महंगाई का शिकार हो रहा है. रुपये की घरेलू कमजोरी इसे विदेशी बाजारों में भी कमजोर कर देती है और फिर विदेशी बाजारों में कमजोर होकर यह देशी बाजार में और भी कमजोर हो जाता है. आज रुपया इसी दुष्चक्र का शिकार हो गया है.
प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि हम 1991 जैसे संकट के दौर में नहीं पहुंचे हैं. लेकिन सच्चाई यह है कि आज का संकट उस समय के संकट से ज्यादा गंभीर होने की ओर अग्रसर है. उस समय सिर्फ विदेशी मुद्रा भंडार का संकट था, आज अर्थव्यवस्था के लगभग हर मोरचे पर संकट है. तब हमारी अर्थव्यवस्था घरेलू संकट की शिकार नहीं थी. लेकिन आज हम भयंकर घरेलू संकट के दौर से गुजर रहे हैं.
आवश्यक वस्तुओं की कीमतें कम क्या, स्थिर होने का भी नाम नहीं ले रही हैं. जिस विकास दर को हमने हासिल किया, उसे भी बरकरार नहीं रख पा रहे हैं. किसी भी देश में यदि चार फीसदी की विकास दर बढ़ कर पांच फीसदी हो जाये, जो देश खुशहाली की ओर बढ़ने लगता है, लेकिन यदि छह–सात फीसदी की विकास दर घट कर पांच फीसदी रह जाती है, तो चारों तरफ मातम का दौर शुरू हो जाता है. आज हम उसी मातमी दौर में पहुंच चुके हैं.
औद्योगिक विकास दर निराशाजनक स्थिति में पहुंच चुकी है. कभी–कभी तो ऐसे आंकड़े भी आने लगे हैं कि औद्योगिक विकास दर नकारात्मक हो गयी है. कृषि के क्षेत्र में यदि हम कुछ बेहतर कर रहे हैं, तो इसका श्रेय मॉनसून को दिया जाना चाहिए.
सरकार अनाज की पर्याप्त उपज के बावजूद उसके वितरण का सही प्रबंध नहीं कर पा रही है. सही भंडारण न हो पाने के कारण हर साल बड़ी मात्र में अनाज सड़ जाता है. यह अपने आपमें संकट की निशानी है.
इन सबके बावजूद प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि आर्थिक सुधार कार्यक्रमों को जारी रखा जायेगा. बल्कि वे उन्हें और भी आगे बढ़ाने की बात कर रहे हैं. आज रुपया अंतरराष्ट्रीय बाजार में आंशिक रूप से ही परिवर्तनीय है. यानी अभी यह पूरी तरह परिवर्तनीय नहीं है. तकनीकी भाषा में कहें तो कैपिटल एकाउंट में रुपया अब भी परिवर्तनीय नहीं है.
क्या मनमोहन सिंह कैपिटल एकांउट में भी रुपये को परिवर्तनीय बनाने की सोच रहे हैं? ऐसा वे अपने पहले कार्यकाल में करना चाह रहे थे, लेकिन वामपंथियों के दबाव में नहीं कर सके. उसका भारत को लाभ हुआ और भीषण वैश्विक मंदी के दौर में भी भारत सुरक्षित रहा.
इसलिए प्रधानमंत्री के साथ–साथ हमारे तमाम नीति निर्धारकों को अब नयी आर्थिक नीतियों पर नये सिरे से विचार करना चाहिए. किसी विचार विशेष से चिपकने की प्रवृत्ति को त्याग कर अब वही करना चाहिए, जिससे देश और इसकी जनता का भला हो सके. कुल मिला कर आर्थिक नीतियों की दिशा बदलने की आज सख्त जरूरत है.