प्याज कितना भी रुलाये जनता सब सह लेगी
मिथिलेश प्रभात खबर, पटना पांच राज्यों में चुनाव नजदीक आ गये हैं और प्याज गदर मचाये हुए है. कांग्रेसियों को डर सता रहा है कि कहीं प्याज फिर से दिल्ली में तख्तापलट न कर दे. वहीं लोगों की आंखों में आंसू प्याज काटने की बजाय खरीदने में निकल रहे हैं. एक चिंता तो यह भी […]
मिथिलेश
प्रभात खबर, पटना
पांच राज्यों में चुनाव नजदीक आ गये हैं और प्याज गदर मचाये हुए है. कांग्रेसियों को डर सता रहा है कि कहीं प्याज फिर से दिल्ली में तख्तापलट न कर दे. वहीं लोगों की आंखों में आंसू प्याज काटने की बजाय खरीदने में निकल रहे हैं.
एक चिंता तो यह भी है कि सावन तो बिना प्याज के कट गया, पर उसके बाद मुर्गा–खस्सी का मजा कैसे लिया जायेगा. खैर, असल सवाल यह है कि प्याज की कीमतें क्यों आसमान छूती हैं, जबकि देश और बिहार में प्याज की पैदावार लगातार बढ़ती जा रही है? कारण कई हैं.
कोई इसे राजनीतिक चश्मे से देखता है, तो कोई व्यापारिक. कभी बाढ़ को कारण बताया जाता है, तो कभी सूखे को. पर मूल कारण यह है कि प्याज अधिक दिनों तक सुरक्षित रह सकती है. इससे इसकी जमाखोरी और मुनाफाखोरी आसान होती है.
नासिक के प्याज उत्पादक इस बात के लिए तैयार हो जायें कि उन्हें निर्यात नहीं करना है, तो प्याज का मौजूदा संकट पल भर में दूर हो जाये. पर, वे अपने पैरों पर कुल्हाड़ी क्यों मारेंगे? आज जब हर कोई मुनाफे को भगवान समझ रहा है, तो प्याज उत्पादकों से त्याग की उम्मीद क्यों? आप पूछेंगे कि केंद्र सरकार क्यों नहीं प्याज निर्यात पर रोक का आदेश जारी करती है.
तो यह जान लीजिए कि चीनी लॉबी हो या प्याज लॉबी, दूरसंचार लॉबी हो या पेट्रोलियम लॉबी सबने नयी दिल्ली में अपना बंदा बैठा रखा है. जहां उनके ‘क्लाइंटों’ के हितों को नुकसान पहुंचा वे सरकार हिलाने लगते हैं.
लेकिन सिर्फ केंद्र को क्यों कोसें, जमाखोरी रोकना तो राज्यों का काम है, पर उन्होंने भी आंखें मूंद रखी हैं. और इस आंख मूंदने की पूरी कीमत भी मिलती है, कभी चुनावी चंदे के रूप में तो कभी पार्टी फंड के रूप में.
पटना सिटी की मंडियों में इतना प्याज जमा है कि अचानक बाजार में आ जाये तो कीमतें जमीन पर आ जायेंगी. बड़ी मंडियों और कोल्ड स्टोरों में करोड़ों की कमाई के लिए प्याज जमा है.
राज्य सरकारें केंद्र की नीतियों की खूब आलोचना करती हैं, पर थोक कारोबारियों के गोदामों पर छापेमारी की जहमत नहीं उठातीं. और, जिन अफसरों पर छापेमारी की जिम्मेदारी है, उनके घर में तो प्याज की कोई कमी है नहीं, फिर भला वे आम आदमी का दर्द कैसे समङों? कारोबारियों का भी अपना तर्क है– भई, महंगा मिल रहा है, तो महंगा ही बेचेंगे न! अगर जेब में रोकड़ा नहीं है, तो डॉक्टर ने तो कहा नहीं है प्याज खाने को.
यदि मनपसंद चीज का स्वाद चखना है, तो इसके लिए पैसे खर्च करने ही पड़ेंगे. अब, बात आम जनता की. यह मत समझिएगा कि वह आंदोलन पर उतर आयेगी. उसे तो महंगाई की आदत है. दवाएं महंगी हुईं, स्कूल और डॉक्टर की फीस महंगी हुई, डीजल–पेट्रोल महंगा हुआ, घर का राशन महंगा हुआ, पर उसे आपने कभी हंगामा खड़ा करते देखा!