दक्षिण एशिया में ईसाइयों पर हमले
सुभाष गाताडे सामाजिक कार्यकर्ता भारत के अंदर स्थितियां किस कदर खराब हो चली हैं, इसे हम जुलियस रिबेरो द्वारा लिखे लेख से जान सकते हैं. खालिस्तानी आतंकवाद के दिनों में पंजाब पुलिस को नेतृत्व देनेवाले रिबेरो ने लिखा है कि अपनी जिंदगी में पहली दफा मैं अपने ही देश में बेगाना हो चला हूं. प्रश्न […]
सुभाष गाताडे
सामाजिक कार्यकर्ता
भारत के अंदर स्थितियां किस कदर खराब हो चली हैं, इसे हम जुलियस रिबेरो द्वारा लिखे लेख से जान सकते हैं. खालिस्तानी आतंकवाद के दिनों में पंजाब पुलिस को नेतृत्व देनेवाले रिबेरो ने लिखा है कि अपनी जिंदगी में पहली दफा मैं अपने ही देश में बेगाना हो चला हूं. प्रश्न है कि 21वीं सदी की दूसरी दहाई में क्या दक्षिण एशिया का यह हिस्सा ऐसे ही हमलों के लिए जाना जायेगा या वह इनसे ऊपर उठ कर विश्व बिरादरी में नया मुकाम हासिल करने के लिए आपसी सामंजस्य एवं सौहार्द की नीतियों पर चलेगा?
ऐसे मौके बहुत कम आते हैं, जब पाकिस्तान और भारत की खबरें एक-दूसरे का प्रतिबिंबन दिखने लगती हैं. लेकिन, इस सप्ताह के पूर्वार्ध में ऐसी घटनाएं सुर्खियां बनीं. उधर पाकिस्तान के लाहौर में ईसाई बहुल योहानाबाद इलाके में स्थित दो चर्चो पर तालिबानी आत्मघातियों ने हमला कर 16 लोगों की जान ले ली और 80 से अधिक लोगों को जख्मी कर दिया, तो इधर भाजपा शासित हरियाणा के हिसार में एक गांव में निर्माणाधीन चर्च को ध्वस्त कर अतिवादियों ने वहां हनुमान का झंडा फहरा दिया. सबसे बुरी खबर तो यह कि पश्चिम बंगाल के नदिया जिले में स्थित एक कॉन्वेंट पर हमला कर वहां की 72 वर्षीय नन के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया.
उधर पाकिस्तान सरकार को अल्पसंख्यक समुदाय के रोष का सामना करना पड़ा, आत्मघाती हमले के खिलाफ पाकिस्तान के तमाम शहरों में प्रदर्शन हुए और पंजाब सरकार को मृतकों को मुआवजा देने तथा चर्चो की सुरक्षा बढ़ाने का आश्वासन देना पड़ा, तो इधर भारत की संसद में सत्ताधारी पार्टी को बढ़ती सांप्रदायिक घटनाओं के खिलाफ संगठित मुखर विपक्ष के चलते बचाव का पैंतरा अख्तियार करना पड़ा.
ध्यान रहे, जहां पाकिस्तान में तालिबानी जमातों ने भविष्य में भी ऐसे हमलों की चेतावनी दी है, वहीं यहां भारत में भी हिंदुत्ववादी संगठनों के जो बयान आये हैं, वे भी इसी बात की ताईद करते हैं कि भविष्य में ऐसी कार्रवाइयां अब नहीं रुकेंगीं. विश्व हिंदू परिषद के एक नेता ने हिसार में चर्च के ध्वस्त करने को इस आधार पर औचित्य प्रदान करने की कोशिश की कि क्या वैटिकन सिटी में हनुमान मंदिर बनेगा? वहीं हरियाणा के मुख्यमंत्री का बयान भी विवादों को बढ़ावा देनेवाला था.
उनके मुताबिक, चूंकि चर्च का पादरी शादी कराने का लालच देता था, उसी वजह से उसे हमले का निशान बनाया गया. भाजपा के वरिष्ठ नेता सुब्रrाण्यम स्वामी द्वारा पिछले दिनों असम यात्रा के दौरान दिया गया बयान, जो एक तरह से चर्च या मसजिदों के अस्तित्व को प्रश्नांकित करता है, भी इसी बात का संकेत देता है.
तो सवाल उठता है कि ऐसे हमलों और इसके पीछे की मानसिकता को किस तरह से समझा जाये? क्या ये घटनाएं इस वजह से हो रही हैं कि ईसाई मिशनरीज द्वारा कथित तौर पर किये जा रहे धर्मातरण के काम को लेकर बहुसंख्यक समुदाय में गुस्सा है या इसकी कुछ अन्य वजहें हैं?
जहां तक धर्मातरण का सवाल है, 2011 के जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि भारत की कुल आबादी में ईसाइयों का प्रतिशत घटा ही है. दूसरी अहम बात यह समझने की है कि ईसाई धर्म अंगरेजों के आगमन के साथ यहां नहीं पहुंचा है, वह क्रिश्चियनिटी के आगमन के कुछ सदी बाद ही यहां पहुंचा था.
इसलिए उसके बारे में ‘बाहरी’ या ‘अंदरूनी’ का विवाद खड़ा करना उचित नहीं है. तीसरी अहम बात इससे संबधित यह है कि ऐसे विवाद अब तक धर्मनिरपेक्षता के रास्ते पर मजबूती से चल रहे भारत को भी उसी फिसलन भरी राह पर ले जाते दिखते हैं, जिस रास्ते से होकर हमारा पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान बदतर हालात में पहुंचा है, जहां यह पता नहीं कि कब किस मसजिद पर, किस मजार पर या अहमदिया लोगों के किन प्रार्थनास्थलों पर बम फूटेगा.
हम इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि जबसे भारत में भाजपा की हुकूमत कायम हुई है, अल्पसंख्यकों पर हमले बढ़े हैं. प्रधानमंत्री ने ईसाई सम्मेलन में यह दावा किया था कि देश में सभी के लिए जगह है और ऐसे हमले बर्दाश्त नहीं किये जाएंगे. इसके बावजूद अगर हमले की घटनाएं हो रही हैं, दिल्ली में पिछले तीन माह में छह चर्चो पर हमले हुए हैं, तो यह संकेत देता है कि असहिष्णु विचारवाले और कट्टर हिंदुत्ववादी संगठन ऐसी कार्रवाइयों को अंजाम देने या बढ़ावा देने में शामिल हैं.
यह कहना मासूमियत की पराकाष्ठा होगी कि ऐसे हमलों का केंद्र में सत्ता परिवर्तन से कोई ताल्लुक नहीं है. हम अटल बिहारी वाजपेयी की हुकूमत के दौर को भी याद कर सकते हैं, जब इसी तरह हिंदूवादी संगठनों की सक्रियता में अचानक तेजी आयी थी, जिन्होंने कई स्थानों पर चर्चो एवं ईसाई समुदाय के अन्य संगठनों को अपना निशाना बनाया था.
ईसाइयों पर भारत, पाकिस्तान या श्रीलंका में हो रहे हमलों को हम समूचे दक्षिण एशिया में बहुसंख्यकवाद के उभार के प्रतिबिंबन के तौर पर भी देख सकते हैं. हम यह पा रहे हैं कि जहां जो अल्पमत में है, वह हमले का शिकार हो रहा है और अल्पसंख्यकों पर हमले के लिए सभी जगह लगभग एक ही किस्म के तर्क इस्तेमाल किये जा रहे हैं. उदाहरण के तौर पर, कुछ समय पहले ह्यूमन राइट्स वाच नामक एक अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन द्वारा बर्मा (म्यांमार) के रोहिंग्या मुसलमानों को लेकर जारी रिपोर्ट के अंश अखबारों में प्रकाशित हुए थे. वे अंश बताते हैं कि किस तरह रोहिंग्या मुसलमानों को राज्यविहीन घोषित कर उन्हें बर्मा से खदेड़ने की कोशिशें चल रही हैं और किस तरह उनके नस्लीय शुद्धिकरण की मुहिम चल रही है, उनके प्रार्थनास्थलों को जलाया जा रहा है और उनके मकानों पर कब्जा किया जा रहा है.
पड़ोसी मुल्क श्रीलंका को देखें, जहां बौद्ध भिक्षुओं के एक समूह द्वारा बनाये ‘बोडु बाला सेना’ का नाम पिछले कुछ समय से सुर्खियों में रहा है, जो एक अतिवादी सिंहला-बौद्घ संगठन है. इस नव-फासीवादी संगठन के हजारों समर्थक हैं, जो यह मानते हैं कि श्रीलंका को अल्पसंख्यकों से खतरा है. बोडु बाला सेना का दावा है कि ‘सिंहल बौद्ध राष्ट्र’ श्रीलंका में ‘मुसलमानों, ईसाइयों और तमिलों के लिए कोई जगह नहीं है. वे अल्पसंख्यक समुदाय के धार्मिक विश्वासों, पूजा-पाठ के तौर-तरीकों और प्रार्थनास्थलों को निशाना बनाते हैं.
कुछ इसी किस्म की स्थितियां पाकिस्तान में भी हैं, जहां उत्पीड़क, आततायी के तौर पर मुसलिम नजर आते हैं, जबकि हिंदू, ईसाई तथा अहमदिया जैसे विभिन्न अल्पसंख्यक समुदाय बचावात्मक पैंतरा रख कर चलने के लिए अभिशप्त हैं. ईशनिंदा का आरोप लगा कर उनकी बस्तियां हमले का शिकार होती रहती हैं, उन्हें जेलों में ठूंस दिया जाता है.
हालांकि, पाकिस्तान के इसलामिक अतिवादी सिर्फ इन गैर-मुसलिमों के खिलाफ ही खड़े नहीं हैं. वे तो मानव बम बन कर सूफी मजारों के सामने अपने ही धर्म के अनुयायियों को उड़ा रहे हैं या शियाओं के नस्लीय शुद्धिकरण में मुब्तिला हैं, क्योंकि उनका मानना है कि मजार पर जाना इसलाम की तौहीन करना है.
इस संदर्भ में भारत के अंदर स्थितियां किस कदर खराब हो चली हैं, इसे हम जुलियस रिबेरो जैसे 86 वर्षीय पुलिस अफसर द्वारा लिखे लेख से जान सकते हैं. खालिस्तानी आतंकवाद के दिनों में पंजाब पुलिस की मुहिम को नेतृत्व देनेवाले रिबेरो ने लिखा है कि अपनी जिंदगी में पहली दफा मैं अपने ही देश में बेगाना हो चला हूं.
ऐसे में प्रश्न उठता है कि 21वीं सदी की दूसरी दहाई में क्या दक्षिण एशिया का यह हिस्सा ऐसे ही हमलों या टकरावों के लिए जाना जाता रहेगा या इनसे ऊपर उठ कर विश्व बिरादरी में नया मुकाम हासिल करने के लिए आपसी सामंजस्य एवं सौहार्द की नीतियों पर चलेगा?