क्या ‘मोदी मैजिक’ को तोड़ेगी कांग्रेस?
प्रमोद जोशी वरिष्ठ पत्रकार राहुल की गैर-मौजूदगी ने मामले को रहस्यमय बना दिया है. कांग्रेस पार्टी की आंतरिक दशा-दिशा साफ नहीं है. पार्टी के पास अभी राज्यसभा में 68 सदस्य हैं. उसके सहारे वह सरकार पर अंकुश रख सकती है, पर उसके पास जनता से कहने के लिए क्या है? सोनिया गांधी ‘सेक्युलर’ ताकतों को […]
प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
राहुल की गैर-मौजूदगी ने मामले को रहस्यमय बना दिया है. कांग्रेस पार्टी की आंतरिक दशा-दिशा साफ नहीं है. पार्टी के पास अभी राज्यसभा में 68 सदस्य हैं. उसके सहारे वह सरकार पर अंकुश रख सकती है, पर उसके पास जनता से कहने के लिए क्या है?
सोनिया गांधी ‘सेक्युलर’ ताकतों को एक साथ लाने में कामयाब हुई हैं. पिछले साल लोकसभा चुनाव के पहले इस किस्म का गठजोड़ बनाने की कोशिश हुई थी, पर उसका लाभ नहीं मिला.
राज्यों के विधानसभा चुनावों में इसकी कोशिश नहीं हुई. केवल उत्तर प्रदेश, बिहार और राजस्थान के उपचुनावों में इसका लाभ मिला. उसके बाद दिल्ली के विधानसभा चुनाव में प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप में यह एकता दिखायी दी. निष्कर्ष यह है कि जहां मुकाबला सीधा है, वहां यदि एकता कायम हुई तो मोदी मैजिक नहीं चलेगा.
क्या इस भाजपा विरोधी मोर्चे का नेतृत्व कांग्रेस करेगी? पिछले हफ्ते की गतिविधियों के आधार पर यह निष्कर्ष निकालने की जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए. भूमि अधिग्रहण विधेयक को लेकर सोनिया गांधी के नेतृत्व में 14 पार्टियों के नेतृत्व में राष्ट्रपति भवन तक हुआ मार्च कई मायनों में प्रभावशाली था, पर इसमें विपक्ष की तीन महत्वपूर्ण पार्टियां शामिल नहीं थीं. संयोग है कि तीनों विपक्ष की सबसे ताकतवर पार्टियां हैं.
अन्नाद्रमुक, बीजद और बसपा की अनुपस्थिति को भी समझने की जरूरत है. कह सकते हैं कि मोदी-रथ ढलान पर उतरने लगा है, पर अभी इस बात की परीक्षा होनी है और अगला परीक्षण स्थल है बिहार.
इसका मतलब यह नहीं कि कांग्रेस के दिन फिरनेवाले हैं. उसके लिए यह महत्वपूर्ण समय है. उसके नेतृत्व में बदलाव का समय है. वह अभी संशय में है. सबसे ज्यादा संशय राहुल गांधी को लेकर है. पिछले साल मई में पराजय के बाद पार्टी सकते में आ गयी थी. उसके पास न तो फौरी रणनीति थी और न दीर्घकालीन दिशा. कार्यसमिति की बैठक में कहा गया कि पार्टी के सामने इससे पहले भी चुनौतियां आयी हैं और उसका पुनर्उदय हुआ है. इस बार भी वह ‘बाउंसबैक’ करेगी. सन् 1977, 1989 और 1996 में भी पार्टी ने ऐसा वक्त देखा और वह उबरी थी.
फिलहाल पार्टी पर एक परिवार का पूरा प्रभाव है और सोनिया गांधी उसका संचालन कर रहीं हैं, पर आगे क्या? सोनिया गांधी का यकीन कि मोदी सरकार फेल होगी और कांग्रेस की वापसी होगी. लेकिन, इसमें कांग्रेस की क्या भूमिका होगी, यह स्पष्ट नहीं है. अब तक वह विपक्षी दलों के साथ मिल कर काम कर रही है. इसकी धुरी है मोदी-विरोध.
सोनिया गांधी कांग्रेस को आक्रामक बनाने की कोशिश कर रहीं हैं. पिछले नवंबर में पंडित जवाहरलाल नेहरू की 125वीं जयंती पर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन के मार्फत उन्होंने मोदी विरोधी ताकतों को एकजुट होने का संकेत दिया था. बिहार के उपचुनाव में मोदी विरोधियों का साथ दिया. दबे-छिपे कहा जा रहा है कि हाल में हुए दिल्ली के चुनाव में आम आदमी पार्टी की जीत के पीछे भी कांग्रेस का परोक्ष हाथ है. इसी तरह 2003 में राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनावों में पराजय का सामना करने के बाद सोनिया गांधी ने भाजपा-विरोधी ताकतों को एक-साथ लाने का महत्वपूर्ण काम किया. 2004 में यूपीए बना कर केंद्र में वापसी की. क्या वे इस बार भी ऐसा ही करनेवाली हैं?
मंगलवार की शाम सोनिया के नेतृत्व में राष्ट्रपति भवन तक 14 पार्टियों का मार्च कई मायनों में ऐतिहासिक है और आनेवाले समय की रणनीति की ओर इशारा कर रहा है. मनमोहन सिंह को कोयला मामले में अभियुक्त बनाये जाने के विरोध में भी 24, अकबर रोड से मोती लाल नेहरू मार्ग स्थित मनमोहन सिंह के आवास तक भी उन्होंने ऐसा ही मार्च किया था. वे सोमवार को जंतर मंतर में हुए प्रदर्शन में भी शामिल होना चाहती थीं, पर पुलिस ने इसकी अनुमति नहीं दी.
इन घटनाओं से कांग्रेसी कार्यकर्ताओं के मन में उत्साह का संचार हुआ है. हाल ही में दिल्ली पुलिस ने राहुल गांधी के बारे में जो पूछताछ की, उसे लेकर भी पार्टी का रुख आक्रामक है. कांग्रेस पार्टी की महिला शाखा से लेकर छात्र शाखा तक सक्रिय हो गयी है. पार्टी ने संसद से सड़क तक आक्रामक रुख अपनाने का फैसला किया है. अब सवाल यह है कि क्या इसका राजनीतिक लाभ मिलेगा?
राज्यसभा में भूमि अधिग्रहण विधेयक को लेकर पार्टी ने विपक्ष को एक-साथ लाने में सफलता हासिल कर ली है. मोदी सरकार अपने काम-काज का पहला साल पूरा होने के पहले ही घिरती नजर रही है. दूसरी ओर क्षीण संख्याबल के बावजूद कांग्रेस उत्साहित लगती है. पर सोनिया गांधी के इस उत्साह से पार्टी की विसंगतियां भी उभरी हैं. ऐसे मौके पर जब संसद का महत्वपूर्ण सत्र चल रहा है, राहुल गांधी मौजूद नहीं है. कार्यकर्ताओं का उत्साहित होना पार्टी के लिए अच्छी खबर है, पर राहुल गांधी का अनुपस्थित होना अच्छी खबर नहीं है. इस वक्त उनकी जरूरत थी. सब ठीक रहा, तो अगले महीने वे पार्टी के अध्यक्ष बननेवाले हैं. जिस भूमि अधिग्रहण कानून का श्रेय उन्हें दिया जाता है, उसे लेकर पार्टी आंदोलन चला रही है और वे खुद मौजूद नहीं हैं.
सोनिया गांधी के सामने आने से पार्टी में फिर से जान आयी है. साथ ही पुराने नेताओं की हैसियत भी बेहतर हुई है. राहुल गांधी के आगे आने से ये नेता पृष्ठभूमि में चले गये थे. राहुल की गैर-मौजूदगी ने मामले को रहस्यमय बना दिया है. पार्टी की आंतरिक दशा-दिशा साफ नहीं है. पार्टी के पास अभी राज्यसभा में 68 सदस्य हैं. उसके सहारे वह सरकार पर अंकुश रख सकती है, पर उसके पास जनता से कहने के लिए क्या है?
राज्यसभा के कुल 245 सदस्यों में भाजपा और उसके सहयोगी दलों का बहुमत नहीं है, जबकि कांग्रेस के पास प्रभावशाली संख्या है. 2015 के अंत तक राज्यसभा की केवल 23 सीटें खाली होनेवाली हैं, इसलिए कांग्रेस की स्थिति में अभी ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा. हां, यह जरूर है कि अगले दो साल में होनेवाले कई विधानसभा चुनावों में पार्टी की असली शक्ल-ओ-सूरत नजर आने लगेगी.
बिहार में इस साल और असम, बंगाल, केरल, तमिलनाडु और पुद्दुचेरी में अगले साल चुनाव होने हैं. इसके बाद 2017 में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा, गुजरात, हिमाचल प्रदेश और मणिपुर की बारी है. यहां तक आते-आते कांग्रेस और भाजपा की राजनीतिक धारा का रुख साफ होने लगेगा. सन् 2014 के लोकसभा चुनाव के दो साल पहले से कांग्रेस ने हारना शुरू कर दिया था. उसे महत्वपूर्ण सफलता केवल कर्नाटक, हिमाचल और उत्तराखंड में मिली थी, लेकिन इस बीच वह महाराष्ट्र, हरियाणा, राजस्थान और आंध्र प्रदेश में हारी है. हालांकि, इस जमीन को फिर से हासिल करने का रास्ता आसान नहीं है.