विश्वविद्यालयों में एक सत्र या वर्ष के उपरांत भव्य आयोजन कर प्रमाण-पत्र बांटने के लिए दीक्षांत समारोह की परंपरा अंगरेजों के जाने के बाद भी भारत में चल रही है. लाखों खर्च करके ऐसे आयोजन किये जाते हैं, जिसमें किसी राजनेता या प्रबुद्ध व्यक्ति को अतिथि बना कर सफल छात्रों के बीच प्रमाण-पत्र बांटे जाते हैं. इससे छात्रों में नयी ऊर्जा और स्फूर्ति भरने में जो कामयाबी मिलती है, वह तो ठीक है, पर काले गाउन पहन कर प्रमाण-पत्र लेने की परंपरा दासता की प्रतीक लगती है.
अंगरेजों द्वारा शुरू की गयी यह परंपरा आज भी भारतीय संस्थानों में सगौरव जारी रखी गयी है, जो याद दिलाती है कि हम कभी अंगरेजों के गुलाम थे और उनके आभा-मंडल से निकल नहीं पायेंगे. भारतीय समाज में काले रंग को अशुभ ही माना गया है. हम शुभ कार्य में श्वेत वस्त्र धारण करते हैं, पर अपनी संस्कृति पर हमें इतना भी विश्वास नहीं कि श्वेत वस्त्र धारण कर हम शिक्षा या उच्च शिक्षा के विश्वास को कायम रख सकते हैं.
भारत में भी ऐसे कई विश्वविद्यालय हैं जहां इस परंपरा का विरोध हुआ है और उन्होंने अपने हिसाब से एक निर्दिष्ट परिधान को मंजूरी दी है. बिहार विश्वविद्यालय आधी सदी पहले से ही काले गाउन के बदले चादर रखने की प्रथा प्रारंभ कर चुका है क्योंकि उसके तत्कालीन कुलपति डॉ दुखन राम ने कहा था कि हमें अपनी सांस्कृतिक परंपरा को विश्वविद्यालयों में जीवित रखना चाहिए.
दीक्षांत समारोहों में फिजूलखर्ची और भीड़भाड़ से उपाधि की गरिमा भी कम हो जाती है. ऐसी स्थिति में छात्रों का प्रोत्साहन कम, दिखावा ज्यादा होता है. इससे बचने के लिए भारत के कई महाविद्यालयों में लघु-दीक्षांत समारोहों का चलन रहा है, इसे व्यापक करने की जरूरत है.