पटना स्थित डीएवी स्कूल, बीएसइ कॉलोनी की 12वीं की एक छात्र की गुमशुदगी और 20 दिनों के बाद उसकी बरामदगी के मामले की जांच में हर दिन नये राज खुल रहे हैं. पुलिस ने स्कूल के तीन शिक्षकों को जेल भेजा है. भले यह घटना सिर्फ एक शहर या एक स्कूल से जुड़ी हुई है, लेकिन यह निजी स्कूलों के संचालन की व्यवस्था का ‘सच’ बताता है. उक्त छात्र की गुमशुदगी के बाद स्कूल प्रबंधन ने दावा किया कि वह 11वीं में फेल हो चुकी थी. लेकिन, पुलिस जांच में उजागर हुआ कि सीबीएसइ ने 12वीं की परीक्षा के लिए उसका प्रवेश पत्र जारी किया था. अब छात्र के इस आरोप में दम लग रहा है कि 11वीं में फेल बता कर और 12वीं के लिए प्रवेश पत्र देने के नाम पर उससे मोटी रकम की मांग की जा रही थी.
जिस स्कूल पर भरोसा कर एक बेहतर कैरियर का सपना पाले अभिभावक अपने बच्चे का नामांकन कराते हैं, वहां ऐसा गोरखधंधा? हर साल फीस में बढ़ोतरी, किसी खास दुकान से किताबें या पोशाक खरीदने का दबाव और सत्र के दौरान कभी कोई आयोजन, तो कभी किसी खास कोर्स के नाम पर फीस की मांग. मजबूरी में ही सही, लेकिन अभिभावकों के बीच यह स्वीकार्य हो चुका है. लेकिन, विद्यार्थी को फेल बता कर उनसे पैसे के दोहन का गोरखधंधा तो अत्यंत गंभीर है. यह बताता है कि निजी स्कूलों के काम-काज में पारदर्शिता का घोर अभाव है. ज्यादातर निजी स्कूलों के प्रबंधन में अभिभावकों की सहभागिता नहीं रहती है.
कुछ स्कूलों ने शिक्षक-अभिभावक कमेटी जरूर बना रखी है, लेकिन इसकी कोई सक्रियता नहीं दिखती. केंद्र सरकार के दिशा-निर्देश के बावजूद अधिकतर स्कूलों में यौन उत्पीड़न की जांच के लिए कमेटी का गठन भी नहीं किया गया है. ऐसे समय में जब पूरी दुनिया में संस्थानों के संचालन में निष्ठा, पारदर्शिता और परिणामोन्मुख कार्य पर जोर दिया जा रहा हो, निजी स्कूल खुद को इससे कैसे अलग-थलग रख सकते हैं. ऐसी व्यवस्था क्यों नहीं बनायी जानी चाहिए, जिसमें अभिभावक स्कूल प्रबंधन से पूछ सकें कि उनसे जो फीस वसूल की जा रही है, उसके एवज में बच्चे के व्यक्तित्व के विकास या शिक्षा की दिशा में वे क्या कर रहे हैं? शिक्षा के निजीकरण के इस दौर में जवाबदेही तो तय करनी ही पड़ेगी.