‘मन की बात’ या मनाने की कोशिश!
लोकसभा चुनाव के तूफानी प्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी ने बार-बार कहा था कि किसानों की समस्याओं का समाधान उनकी सरकार की प्राथमिकता होगी. लेकिन, बीते दस माह में उनकी सरकार के रवैये से किसान निराश हैं. उपज का सही मूल्य, कर्ज से मुक्ति, स्ंिाचाई और तकनीक की बेहतरी, आत्महत्या के लिए मजबूर खेतिहरों को […]
पूरा संबोधन भूमि अधिग्रहण अध्यादेश, जो अब विधेयक के रूप में राज्यसभा में विचारार्थ है, पर सरकार के तर्को का दुहराव बन कर रह गया. मोदी ने इसके सतही पहलुओं को ही रेखांकित किया और विपक्ष पर किसानों को बरगलाने का आरोप लगाया. इस प्रस्तावित कानून पर उठे गंभीर सवालों पर टिप्पणी करने से वे बचते नजर आये. बेमौसम बरसात से हुई बरबादी पर उन्होंने दुख तो व्यक्त किया, पर सरकार की कोशिशों का हवाला नहीं दिया. न्यूनतम समर्थन मूल्य और बोनस देने में सरकार की आनाकानी तथा उपज की सरकारी खरीद में कटौती पर भी वे चुप रहे.
पिछले ढाई माह में ही देश में सैकड़ों किसान आत्महत्या कर चुके हैं, लेकिन सरकार इस दिशा में कोई ठोस पहल नहीं कर सकी है. 2011 की जनगणना के अनुसार, 26.31 करोड़ लोग (11.88 करोड़ किसान और 14.43 करोड़ कृषि श्रमिक) खेती पर निर्भर हैं. इसमें अस्थायी व मौसमी श्रमिकों को जोड़ लें, तो यह संख्या कुल रोजगार की करीब 60 फीसदी है. बावजूद इसके सरकार का विशेष ध्यान उद्योग जगत के विकास पर ही है. सरकार को समझना चाहिए कि समुचित मदद मिलने पर किसान विकास-प्रक्रिया का मुख्य संवाहक हो सकता है. एक कृषि प्रधान देश में कृषि-क्षेत्र पर विशेष ध्यान दिये बिना वृद्धि-दर के आकलन बेमानी साबित होते रहेंगे.