इंतजार में जुबली पार्क हो गया हूं!

तुम एनएच 33 की तरह व्यस्त रहती हो और मैं तुम्हारे इंतजार में जुबिली पार्क हो गया हूं. जब मैं तुम्हारे इंतजार में थक जाता हूं तो उन 86 बस्तियों सा महसूस करने लगता हूं जिन्हें आज तक सिर्फ आश्वासन ही मिला है. फिर भी नसों में उम्मीदों का उबाल इतना तगड़ा है कि सांसे […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | March 23, 2015 6:31 AM

तुम एनएच 33 की तरह व्यस्त रहती हो और मैं तुम्हारे इंतजार में जुबिली पार्क हो गया हूं. जब मैं तुम्हारे इंतजार में थक जाता हूं तो उन 86 बस्तियों सा महसूस करने लगता हूं जिन्हें आज तक सिर्फ आश्वासन ही मिला है. फिर भी नसों में उम्मीदों का उबाल इतना तगड़ा है कि सांसे टूटती नहीं हैं. हां, कभी-कभी यह भी लगता है कि हमारी जिंदगी में मानगो पुल सा जाम लगने के कारण ठहराव आ गया है और कभी-कभी गरमी की तपती दोपहरी में टेल्को एरिया की सड़कों जैसी वीरानगी छा जाती है.

फिर भी मैं सालाना आयोजन ‘फ्लावर शो’ की ताजगी और रंगीनियों जैसी ही खुशी देने वाले तुम्हारे इंतजार में हर दिन संस्थापक दिवस मनाता रहता हूं. सच तो यह है कि जब तुम बिष्टुपुर में होती हो तब मैं मानगो सा महसूस करता हूं. यह ‘खास’ और ‘आम’ होने का अहसास नहीं बल्कि समयानुकूल सच्चाइयों का सामना करना भर है. तुम्हारे साथ जब छप्पनभोग में स्वादिष्ट मिठाइयां खा रहा होता हूं तो तुम मुङो रसगुल्ला जैसी लगती हो, पर तन्हाइयों के वक्त मैं गोलगप्पा के उस फुचके जैसा हो जाता हूं जिसकी वैल्यू मसाला पानी के बिना नहीं होती. तुम्हारा स्वभाव मुङो कभी-कभी जलेबी जैसा भी लगता है.

जिसे गरम खाओ तो मुंह जलता है और ठंडा खाने पर बेस्वाद लगता है. सीरियसली, जुबली पार्क मुझमें इस कदर बस गया है कि मैं तुम्हारे साथ साकची जाते वक्त स्टेडियम की तरफ से न जाकर जुबिली पार्क की तरफ से ही जाता हूं. उसकी खुली हवाओं को अपने नथुनों में भरते हुए. हरे-भरे पेड़ों और फूलों की ताजगी को मन ही मन समेटते हुए. जब तुम मेरे साथ होती हो मेरा मन साकची के मंगल बाजार की तरह गुलजार रहता है. जिसमें महंगी और ब्रांडेड चीजें नहीं, बल्कि रोजमर्रा की जिंदगी में काम आनेवाले जरूरी सामान बहुत किफायती दामों में मिल जाते हैं. क्या हमारा प्यार सचमुच जमशेदपुर जैसा है? इतने त्योहार, इतने सेलिब्रेशन, इतने आयोजन होते हैं कि पता ही नहीं चलता कि कौन असली है और कौन बनावटी. मिश्रित संस्कृति ने शहर की पहचान छीन ली है.

न कोई अपनी भाषा, न कोई अपना स्वभाव. लोग यहां होकर भी यहां के नहीं होते. यहां सबका मालिक एक है, पर सब खुद भी मालिक हैं अपनी मरजी के. दिखने में आयरन, पर अंदर बज रहा सायरन! अब छोड़ो भी. क्या रखा है इन शिकवा-शिकायतों में. मेरे मन में तुम्हारे प्रति वैसी ही अगाध श्रद्धा है जितनी शहरवासियों के मन में जमशेदजी टाटा के लिए. हां, एक बात मैं जरू र कहूंगा कि तुम अपने पहनावे से बागबेड़ा जैसी लगती हो. सीएच एरिया से बिष्टुपुर वाले रोड जैसा नया लुक आजमा कर देखो. बेहद खूबसूरत लगने लगोगी. मुङो उम्मीद है कि तुम इस प्रपोजल को मेरीन ड्राइव के मॉल और मल्टीप्लेक्स जैसा लटकाने के बजाय टाटा वर्कर्स युनियन के चुनाव जैसा शीघ्र ही मूर्त रू प में परिणत कर दोगी.

अखिलेश्वर पांडेय

प्रभात खबर, जमशेदपुर

apandey833@gmail.com

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