राज्य सत्ता बनाम जन-अभिव्यक्ति

अभिव्यक्ति की आजादी के बूते ही किसी राज्य-व्यवस्था में रहते हुए कोई नागरिक या समूह किसी व्यक्ति या संस्था के विचार या काम से अपनी असहमति दर्ज करा पाता है. इस असहमति के जरिये सुनिश्चित किया जा सकता है कि लोकतंत्र के भीतर कोई व्यक्ति या संस्था शक्ति का एकमात्र केंद्र न बने. सुप्रीम कोर्ट […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | March 25, 2015 5:33 AM
अभिव्यक्ति की आजादी के बूते ही किसी राज्य-व्यवस्था में रहते हुए कोई नागरिक या समूह किसी व्यक्ति या संस्था के विचार या काम से अपनी असहमति दर्ज करा पाता है. इस असहमति के जरिये सुनिश्चित किया जा सकता है कि लोकतंत्र के भीतर कोई व्यक्ति या संस्था शक्ति का एकमात्र केंद्र न बने. सुप्रीम कोर्ट ने सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 66ए को रद करते हुए इसी बुनियादी बात को रेखांकित करना चाहा है.
कोर्ट ने माना है कि धारा 66ए से संविधान-वर्णित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार प्रभावित होता है. उसके सामने ऐसा कहने के ठोस उदाहरण थे. शिवसेना सुप्रीमो बाल ठाकरे की मृत्यु के बाद मुंबई ठप हो गयी. फेसबुक पर एक लड़की ने सवाल उठाया और उसकी सहेली ने उसे लाइक किया, तो मुंबई पुलिस ने दोनों को धारा 66ए की शक्तियों का इस्तेमाल करके जेल में डाल दिया. पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम के पुत्र की आलोचना करने पर इसी धारा के तहत रवि श्रीनिवासन को गिरफ्तार किया गया. ममता बनर्जी का काटरून बनाने वाले एक प्रोफेसर इसी धारा के तहत जेल भेजे गये थे.
हाल में आजम खान से जुड़े पोस्ट लिखनेवाले 11वीं के एक विद्यार्थी को इसी धारा के आधार पर जेल हुई. आलोचना के बीच सरकार मान चुकी थी कि 66ए में संशोधन की जरूरत है, लेकिन उसकी दलील यह भी थी कि इंटरनेट के बढ़ते प्रसार के साथ इस पर कड़ी निगाह रखने की जरूरत है.
उसकी यह दलील वस्तुस्थिति पर आधारित नहीं थी. बदअमनी का फैलना एक बात है और बदअमनी फैलने की आशंका के आधार पर राज्यसत्ता द्वारा किसी को यह कहना कि वह अपनी जबान बंद रखे वरना जेल में डाल दिया जायेगा, एकदम ही दूसरी बात. बदअमनी की आशंका के तर्क का इस्तेमाल किया जाये, तो किसी राज्य-व्यवस्था में लोकहित के नाम पर किसी व्यक्ति या वर्ग-विशेष के पक्ष-पोषण के लिए की जा रही किसी गतिविधि से असहमत होना संभव ही नहीं रह जायेगा. इसके उलट धारा 66ए के राज्य-सत्ता द्वारा दुरुपयोग के एक से ज्यादा उदाहरण सामने आ चुके हैं.
ऐसे में सुप्रीम कोर्ट ने 66ए को खारिज कर भारतीय लोकतंत्र में नागरिक के अधिकारों के बरक्स राज्यसत्ता की बढ़ती ताकत पर अंकुश लगाने का एक जरूरी काम किया है.
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