आप का संकट और दुर्भाग्यपूर्ण संकेत
राजनीतिक दलों की आंतरिक कलह, फूट और टूट की कहानियों से राजनीतिक इतिहास भरा-पड़ा है. इस लिहाज से आम आदमी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व में चल रहा घमासान कोई नयी परिघटना नहीं है. लेकिन इस पार्टी के गठन की पृष्ठभूमि और इसके उद्देश्यों के आधार पर देखें, तो यह पूरा प्रकरण न सिर्फ चिंताजनक है, […]
राजनीतिक दलों की आंतरिक कलह, फूट और टूट की कहानियों से राजनीतिक इतिहास भरा-पड़ा है. इस लिहाज से आम आदमी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व में चल रहा घमासान कोई नयी परिघटना नहीं है. लेकिन इस पार्टी के गठन की पृष्ठभूमि और इसके उद्देश्यों के आधार पर देखें, तो यह पूरा प्रकरण न सिर्फ चिंताजनक है, बल्कि वर्तमान राजनीति में बदलाव की उम्मीद बांधे लोगों के लिए निराशाजनक भी है.
मामला अगर कुछ व्यक्तियों की महत्वाकांक्षाओं और स्वार्थो की टकराव का होता, तो इसे आम राजनीति की सामान्य बात कह कर टाला जा सकता था, लेकिन सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी और पारदर्शिता तथा सत्ता में जनता की भागीदारी सुनिश्चित कराने का वादा लेकर सामने आयी यह नवोदित पार्टी अब आपसी आचार-व्यवहार में भी इन सिद्धांतों को तिलांजलि देती दिख रही है.
दुर्भाग्य है कि पिछले एक महीने से चल रहे इस तमाशे में शामिल चरित्र अब भी उन्हीं आदर्शो की दुहाई दे रहे हैं. शनिवार को पार्टी की राष्ट्रीय परिषद की बैठक में अरविंद केजरीवाल ने जहां यह कहा कि उन्हें सत्ता या किसी पद का लालच नहीं है, वहीं यह भी कह रहे थे कि वे ‘जीत की राजनीति’ करने आये हैं और जो ऐसी राजनीति करना चाहते हैं, वे उनके साथ आयें. अपने संबोधन में वे बार-बार कह रहे थे, ‘क्यों, मैं सही कह रहा हूं न?’ सीधे तौर पर प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव को पदों से हटाने की बात कह कर वे बैठक से निकल गये. जब हंगामे के बीच चार संस्थापक सदस्यों को कार्यकारिणी से बाहर करने का प्रस्ताव बिना किसी बहस के ‘पारित’ कर दिया गया, तब वे फिर वापस आये.
लोकतांत्रिक मर्यादाओं की दुहाई देते रहनेवाले केजरीवाल के इस तेवर को विरोधाभासी रवैया भर ही नहीं कहा जा सकता है, दिल्ली में सरकार बनाने के लिए जोड़-तोड़ की बात और विरोधियों के लिए अपशब्दों का प्रयोग करते केजरीवाल प्रथम-द्रष्ट्या उन सभी दावों-वादों को छोड़ते नजर आ रहे हैं, जो अब तक वे खुद करते आ रहे थे. सामूहिक नेतृत्व और कार्यकर्ता आधारित संगठन की जगह एक गुट का काबिज होना, पार्टी पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों पर चुप्पी और समर्थकों में पदों की बंदरबांट पार्टी के ‘स्वराज’ से ‘स्व-राज’ की ओर उन्मुख होने के दुर्भाग्यपूर्ण संकेत हैं.