अरविंद केजरीवाल ने 2014 में जब पहली बार मुख्यमंत्री के रूप में पदभार ग्रहण किया था, दिलीप कुमार की एक फिल्म का गाना गाया था : ‘इंसान का इंसान से हो भाईचारा, यही पैगाम हमारा..’. वर्ष 2015 में शपथ लेते वक्त वे दिलीप कुमार की एक अन्य फिल्म का गाना गा सकते थे : ‘साला, मैं तो साहब बन गया..’. उनकी संशोधित आदर्श व्यवहार नियमावली में ‘साला’ की नियति निर्वासन का विषाद है.
सबसे पहले एक उलङो हुए सवाल पर गौर करते हैं- हमारे मनोवैज्ञानिक अवचेतन की किस ग्रंथि के कारण ‘साला’ शब्द पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में निंदात्मक और अपमानजनक संबोधन बन गया? हम जाति, संप्रदाय, रंग, समुदाय और देश के अलग-अलग खांचों में बंटे हुए हो सकते हैं, लेकिन हमारे सांस्कृतिक और भाषायी समझ में ‘साला’ को लेकर अभूतपूर्व एकता दिखती है. आप चाहे हिंदी, उर्दू, बंगाली, भोजपुरी, पंजाबी, गुजराती, मराठी या फिर अंगरेजी को स्थानीय रूप में बोलते हों, ‘साला’ (या बंगाली में ‘शाला’) की जगह अपमान की सूची में ही होगा. आप इस शब्द की अभिव्यक्ति के विभिन्न लय-रूपों का प्रयोग पर अभिनय के स्कूल में एक पाठ्यक्रम तक चला सकते हैं.
आखिर क्यों? मुङो नहीं पता है. रिश्तेदारी में तो यह शब्द ज्यादातर परिवारों में पत्नी के भाई के साथ मधुर संबंधों के संकेत से अधिक कुछ नहीं है. तो क्या ‘साला’ किसी गहरे, बुरे, रहस्यात्मक अपराध-भावना या इच्छा का भी प्रतीक है, जिसका अर्थ समझ पाना मनोविश्लेषकों की सामूहिक क्षमता से भी परे है?
हालांकि इसका प्रत्यक्ष अर्थ बिल्कुल स्पष्ट है. गुस्से या नाराजगी की हालत में प्रयुक्त होने पर यह विशेष कटुता का द्योतक हो जाता है. मध्यवर्ग के नैतिकतावादियों के फैशनेबल हीरो तथा राजधानी के नव-वंचितों की पवित्र आशा दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने इस संबोधन का इस्तेमाल उन दो लोगों- अपने पूर्व साथी योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण- के लिए किया, जिनसे वे घृणा करते हैं. अपने विरोधियों को अनैतिक विश्वासघाती कहते हुए उन्होंने अपने कुटिल क्रोधित शब्दावली में ‘कमीना’ शब्द भी जोड़ा. उनकी आवाज से निकलते झाग का मतलब यह था कि यह दमित लावा विस्फोट के अवसर का इंतजार कर रहा था.
अरविंद केजरीवाल, प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव की त्रिमूर्ति ने एक पार्टी बनायी, जिसे दो बिल्कुल स्थानीय चुनावी जीतों को राष्ट्रीय सुर्खियां बनाने का असाधारण गौरव प्राप्त है. भूषण शांत विचारक, यादव मुख्य रणनीतिकार और केजरीवाल सार्वजनिक प्रचारक थे, तथा इसीलिए नेता मान लिये गये थे. पार्टी की सफलता इन सबके सामूहिक कौशल का परिणाम थी. भूषण और यादव की मदद के बिना केजरीवाल उस मुकाम तक नहीं पहुंच सकते थे, जहां वे आज खड़े हैं.
परंतु सफलता क्रूर होती है और असफलता सहानुभूतिपूर्ण होती है. विजय अहंकार को बढ़ाती है, जबकि पराजय इसके आवेग को कुंद करती है. केजरीवाल प्रदर्शनों और संघर्ष के दौरान अपने अनुभवी परामर्शदाताओं के साथ प्रसन्न थे, कुछ चिंतित भी. मंच की कहानी कुछ और होती है. पार्टी के नाम का संक्षिप्त रूप ‘आप’ हिंदी में विनम्र संबोधन बन जाता है और इस भले रूप को वोट मांगते समय प्रभावी तौर पर भुनाया भी गया था.
अब सत्तारुढ़ केजरीवाल का संदेश बहुत रुखा है. ‘आप’ अब ‘मैं’ में तब्दील हो गया है. अब यह सिर्फ केजरीवाल की पार्टी है. बाकी सब उनकी मर्जी और पसंद से काम कर रहे हैं. अब केजरीवाल कई समान लोगों में प्रथम नहीं हैं, बल्कि वही एकमात्र प्रथम हैं. बस.
किसी तलाक का विवरण कुछ मिनटों के लिए तो उत्तेजक हो सकता है, पर बहुत जल्दी ही उबाऊ हो जाता है. लेकिन आम आदमी पार्टी के कटुता भरे तलाक में विवाद संपत्ति के अधिकारों को लेकर भी है, इसलिए दिलचस्पी अभी कुछ देर और बनी रहेगी. और चूंकि दिखावटी नैतिकता भी उन संपत्तियों में शामिल है, जिन पर दावेदारी है, तो तर्क भी एक-दूसरे की तुलना में पवित्र होंगे. यह देखा जा सकता है कि अभी वह गुट, जिसके पास सत्ता नहीं है, नैतिकता पर दावा कर रहा है. केजरीवाल खेमा, जहां एक फील्ड मार्शल, 66 ब्रिगेडियर और घटते सैनिकों की टुकड़ी है, ने पहले ही नियम और शर्तो को धत्ता बता दिया है. यह असली राजनीति के पाठ्यक्रम की नयी शिक्षा है.
यह परिवर्तन दरअसल दिल्ली के हालिया विधानसभा चुनाव के प्रचार अभियान के दौरान अस्तित्व में आया. अरविंद केजरीवाल ने 50-50 लाख के कम-से-कम चार बैंक चेक धन का रंग और स्नेत देखे बिना ही ग्रहण किया तथा बड़े आराम से, निश्चिंत होकर पिकनिक मनाने चले गये. उन्होंने संदेहास्पद लोगों को पार्टी का टिकट देने के बदले पैसा मांगा. यह भारतीय राजनीतिक परंपरा के प्रति उनकी एक और कर्तव्यपूर्ण श्रद्धा थी. मतदान से पहले उनके प्रत्याशियों ने मतदाताओं में शराब बांटा, जो पुलिस अदालत में सत्यापित भी करेगी.
दिलचस्प बात यह है कि केजरीवाल ने बार-बार कहा कि भूषण और यादव ‘कमीने’ हैं, क्योंकि उन्होंने दिल्ली में पार्टी को हराने की पूरी कोशिश की. लेकिन किस तरह? न तो भूषण ने और न ही यादव ने किसी चुनावी भाषण या बयान में कुछ ऐसा कहा, जो केजरीवाल या पार्टी के लिए नुकसानदेह हो सकता था. वे दोनों अपनी आपत्तियों को लेकर चुप रहे. हम सिर्फ यही मान सकते हैं कि वे पार्टी के भीतर आपसी बातचीत में मुखर रहे होंगे और केजरीवाल को ईमानदारी और पारदर्शिता बनाये रखने को कहा होगा, जिसका उन्होंने खुद भी लोगों से वादा किया था. भूषण और यादव ने सोचा होगा कि यह उनकी पार्टी का आधारभूत लक्षण है. केजरीवाल को लगता था कि सिर्फ केजरीवाल ही पार्टी का आधार है, बाकी बातें तो बस विस्तार भर हैं.
यह बहस बिल्कुल बेमानी है कि आम आदमी पार्टी को दिल्ली तक ही सीमित रहना चाहिए या उसका विस्तार देश के अन्य राज्यों में होना चाहिए. अरविंद केजरीवाल ने यह निर्णय कर लिया है कि सैद्धांतिक आदर्शवाद शुरुआत के लिए तो जरूरी था, लेकिन अब यह पार्टी को बचाने या सरकार चलाने के उद्देश्य के लिए ठीक नहीं है. एक तरह से उन्होंने आम आदमी पार्टी के हर विधायक को सत्ता की टोकरी में से एक-एक टुकड़ा दे दिया है. ज्यादातर विधायक या तो मंत्री हैं या फिर संसदीय सचिव. इस दूसरी श्रेणी यानी संसदीय सचिव का काम क्या होता है? कौन जानता है? किसे परवाह है? उन्हें एक कार मिलेगी, एक सरकारी कार्यालय होगा और दिखावा करने के लिए कई अधिकार मिलेंगे.
जब अरविंद केजरीवाल ने 2014 में दिल्ली के मुख्यमंत्री के रूप में पहली बार पदभार ग्रहण किया था, उस वक्त उन्होंने दिलीप कुमार की एक फिल्म का गाना गाया था- ‘इंसान का इंसान से हो भाईचारा, यही पैगाम हमारा..’. वर्ष 2015 में जब वे दोबारा दिल्ली के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ले रहे थे, दिलीप कुमार की एक अन्य फिल्म का गाना गा सकते थे- ‘साला, मैं तो साहब बन गया..’.
अरविंद केजरीवाल की संशोधित आदर्श व्यवहार नियमावली में ‘साला’ की नियति निर्वासन का विषाद है. हालांकि, अगर कोई भाई पारंपरिक अपराधी होना चाहता है, तो उसका पूरा स्वागत है.
एमजे अकबर
प्रवक्ता, भाजपा
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