जवाबदेही से दूर होते राजनीतिक दल

दागियों की राह आसान बीते दिनों सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया था कि कोई सांसद या विधायक निचली अदालत में किसी भांति दोषी पाया जाता है तो उसकी सदस्यता समाप्त मानी जायेगी, साथ ही उसे अपील लंबित रहने तक चुनाव लड़ने की मनाही होगी. कोर्ट ने जन–प्रतिनिधित्व कानून की उन धाराओं को भेदभाव–पूर्ण माना था, […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | August 24, 2013 3:23 AM

दागियों की राह आसान

बीते दिनों सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया था कि कोई सांसद या विधायक निचली अदालत में किसी भांति दोषी पाया जाता है तो उसकी सदस्यता समाप्त मानी जायेगी, साथ ही उसे अपील लंबित रहने तक चुनाव लड़ने की मनाही होगी.

कोर्ट ने जनप्रतिनिधित्व कानून की उन धाराओं को भेदभावपूर्ण माना था, जिनमें जनप्रतिनिधियों को जेल में रहते हुए भी चुनाव लड़ने की छूट दी गयी है. देश की विधायिका को दागी सांसदोंविधायकों से मुक्त रखने और राजनीति के अपराधीकरण को रोकने की जरूरत बरसों से महसूस की जा रही है. इसलिए नागरिक संगठनों ने अदालत के फैसले को लोकतंत्र पर आम आदमी के विश्वास को बहाल करने की कोशिश के रूप में देखा.

एक तो फैसले से यह साबित हुआ कि न्यायपालिका के विवेक पर देश के राजनेतावर्ग का खास जोर नहीं चलता, साथ ही यह संदेश भी गया कि कम से कम सर्वोच्च अदालत अपनी संविधान प्रदत्त स्वायत्तता का इस्तेमाल कर पा रही है.

पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के तुरंत बाद आशंका जागी थी कि राजनीतिक दल अपने भेदभाव भुला कर इस मामले पर एकजुट हो जायेंगे और संसद की सर्वोच्चता का तर्क देते हुए ऐसी कोशिश करेंगे कि कोर्ट का फैसला निष्प्रभावी हो जाये. अब कैबिनेट ने जनप्रतिनिधित्व कानून की धाराओं को संशोधित करने की मंजूरी दे दी है.

एक बार कानून बन जाये, तो अदालती फैसलों के लिए वही आधार बन जाता है. जाहिर है, प्रस्तावित संशोधन राजनेताओं को पहले की तरह जेल से चुनाव लड़ने और लंबित मामलों में अंतिम फैसला आने तक विधायिका की सदस्यता बरकरार रखने की मंशा से प्ररित है.

सूचना का अधिकार कानून के घेरे में आने से बचने के लिए राजनीतिक दल पहले से ही एकजुट हैं और इस कानून में भी संशोधन का प्रस्ताव संसद में पेश हो चुका है. राजनीतिक दलों के ये प्रयास उन्हें जनता के प्रति नैतिक जवाबदेही से आजाद करते हैं और ऐसी आजादी स्वेच्छाचारिता में गिनी जाती है. जबकि लोकतंत्र किसी व्यक्ति या संस्था की स्वेच्छाचारिता पर रोक लगानेवाली व्यवस्था का ही नाम है.

स्वयं को जनता के प्रति जवाबदेही से बचाये रखने की राजनीतिक दलों की यह कोशिश एक ऐसे वक्त में हो रही है जब खाद्यसुरक्षा और भूमि अधिग्रहण जैसे जनपक्षी कानूनों पर संसद में तकरार जारी है.

ऐसे में कोई यह सोचे कि भारत एक ऐसा लोकतंत्र बनने की दिशा में अग्रसर है, जहां की संसद शेष समाज की कीमत पर थोड़े से लोगों के निजी हितों का पोषण करनेवाली संस्था बन कर रह जायेगी, तो क्या अचरज!

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