पाकिस्तान के 66 साल के रंग
।। ताहिर मेहदी ।। (पाकिस्तान की शोध संस्था से जुड़े हैं) अपने गठन के बाद 66 वर्षो में पाकिस्तान ने वास्तव में कभी अपने रंग–ढंग को नहीं बदला है. एक गहरी छाया या एक हल्की छाया के साथ इसका रंग हमेशा हरा ही रहा है. पाकिस्तान के इतिहास को लेकर हमारे राजनीतिक संभाषणों में दो […]
।। ताहिर मेहदी ।।
(पाकिस्तान की शोध संस्था से जुड़े हैं)
अपने गठन के बाद 66 वर्षो में पाकिस्तान ने वास्तव में कभी अपने रंग–ढंग को नहीं बदला है. एक गहरी छाया या एक हल्की छाया के साथ इसका रंग हमेशा हरा ही रहा है.
पाकिस्तान के इतिहास को लेकर हमारे राजनीतिक संभाषणों में दो तरह की कथाओं का वर्चस्व है. दोनों ही अपने–अपने विचारों से निहित दावे प्रस्तुत करते हैं. एक पक्ष उद्धृत करता है कि देश की उत्पत्ति में इसलाम की प्रमुख भूमिका रही है और मौजूदा संदर्भो की व्याख्या भी वह इसी को मुख्य प्रेरक मान कर करेगा. अन्य उद्धरणों में कहा जाता है कि पाक के गठन में कुछ हद तक उदारवादियों की भूमिका थी.
‘कायद’ (उच्च वर्ग) अंगरेजी बोलते हैं, पश्चिम की तरह ड्रेस पहनते हैं और पालतू कुत्ते साथ रखते हैं. लियाकत अली की पत्नी रा’अना विदेशी मेहमानों से हाथ मिला चुकी हैं. अयूब खान इनसे भी आगे बढ़ते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति से गलबहियां कर चुके हैं. इन ‘उदार’ संस्थापकों ने देश की स्थापना की थी और मौजूदा मुसलिम देश की एक उदार, धर्मनिरपेक्ष छवि गढ़ते हुए आगे बढ़े–जो कुछ हद तक तो समान, लेकिन अतातुर्क की तुर्की से बेहतर था.
यह देश 1970 तक इस ‘मूल’ उदार तौर–तरीकों पर कायम था. इन दावों के संदर्भ में साक्ष्य के तौर पर कुछ दिलचस्प तसवीरें मौजूद हैं. सोशल मीडिया में 1950, 1960 और 1970 के दशक की रोमांटिक ब्लैक एंड व्हाइट तसवीरें हजारों बार देखी व भेजी गयी हैं तथा बेहद आकर्षक टिप्पणियों के साथ इन्हें लेखों के ढांचे में समेटा गया है.
इन तसवीरों में जहां लाहौर के होटल में शराब की चुस्कियां लेतीं और स्लीवलेस ड्रेस में ताश खेलतीं महिलाओं को दिखाया गया है, वहीं पेशावर के ‘किसा खानी’ बाजार में कश लगाते यूरोपियन हिप्पियों को महिलाएं चपल कबाब परोस रही हैं.
वे दिन भी क्या थे! मुल्ला–मौलवी या तो जेलों में थे या मसजिदों में जिम्मेवारियों का पालन करते थे और हर महिला–पुरुष को मनपसंद कार्य की आजादी थी. बाद में, राजनीतिक अधिकार के षड्यंत्रों से ये चीजें पटरी से उतर गयीं और देश को अतिवादियों ने रसातल में पहुंचा दिया.
इन तथाकथित उदार–धर्मनिरपेक्ष उक्तियों से मुझे अनेक समस्याएं हैं, लेकिन मैं एक मुद्दे को ही फोकस करना चाहूंगा. क्या कभी एक उदार और धर्मनिरपेक्ष पाकिस्तान हुआ है? मैं गंभीरता से मानता हूं कि ऐसा राष्ट्र कभी अस्तित्व में नहीं रहा है. अपने गठन के बाद 66 वर्षो में पाकिस्तान ने वास्तव में कभी अपने रंग–ढंग को नहीं बदला है. एक गहरी छाया या एक हल्की छाया के साथ यह हमेशा हरा ही रहा है.
कंफ्यूज्ड (भ्रमित) मुसलिम विचाराधारा से इस देश का उदय हुआ था और विभिन्न समूहों ने अपने हितों के अनुकूल इसकी व्याख्या की. एक विशिष्ट तबका इस पर शासन के लिए इसलाम के छद्म आवरण का इस्तेमाल करना चाहता था; सत्ता हथियाने के लिए उनके पास कोई दूसरी राह भी नहीं थी. इसलामिक मताधिकार पर मौलवियों का वर्चस्व था, जिसे वे सत्ता में हिस्सेदारी के बिना छोड़ना नहीं चाहते थे.
मैं यहां कुछ मामलों को रखना चाहता हूं. प्रधानमंत्री लियाकत अली खान द्वारा प्रस्तुत हमारे संविधान का पहला प्रारूप आधा–अधूरा था. विभिन्न वजहों से किसी भी दल ने इसे स्वीकार नहीं किया था. 1952 में, अगले प्रधानमंत्री ख्वाजा निजामुद्दीन ने मंजूरी के लिए दूसरा व्यापक और विस्तृत प्रारूप पेश किया. इस प्रारूप में देश को इसलामीकरण के सांचे में ढालने की एक पूरी योजना समाहित थी.
इसका विवरण चौंका देनेवाला है. गैर–मुसलिमों के लिए इसमें एक पृथक मतदान प्रणाली प्रस्तावित की गयी थी, जिसे जनरल जिया ने तीन दशक बाद लागू किया. इसमें मौलवियों के माकूल संसदीय निकाय को सबसे ऊपर रखने के लिए उन्हें चयनित प्रतिनिधियों के किसी भी कदम को गैर–इसलामिक बता कर नकारने का भी अधिकार दिया गया. मौलवियों के सत्ता की ऐसी प्रणाली 1979 में ईरान द्वारा इसलामिक क्रांति के बाद अपनायी गयी थी.
पाकिस्तान में, हालांकि उक्त निकाय की शक्तियों को उत्तरोत्तर संविधान द्वारा दृढ़ता से दबाया गया, पर काउंसिल ऑफ इसलामिक आइडियोलॉजी के नाम से एक एडवाइजरी संस्था अब भी अस्तित्व में है. इस प्रकार, दूसरे प्रारूप में पूरी तरह से धर्मतंत्र की सत्ता का मॉडल प्रस्तुत किया गया और तत्कालीन प्रधानमंत्री ने इसे सदन के समक्ष रखने की हिम्मत दिखायी थी.
इस प्रारूप को पेश किये जाने से कुछ माह पूर्व अहमदी विरोधी दंगे भड़क गये थे. हालात इतने गंभीर हो गये थे कि पहली बार लाहौर में मार्शल लॉ लागू करना पड़ा था. देश ने अपने पहले पांच वर्षो में अहमदी मामलों पर जारी गतिरोध और उससे भड़के दंगों से देशभर में हुए व्यापक कत्लेआम को देखा है.
धार्मिक दलों के पास देश को इसलामीकरण करने का ब्लू पिंट्र तैयार था और समाज उसके नियंत्रण में था, इन दंगों की आड़ में वे सत्ता के गलियारों में सफलता की ओर अग्रसर थे. फिर भी सत्ता पर काबिज विशिष्ट तबका विलासितापूर्ण क्लबों का आनंद लेते हुए पूरी तरह से ऐय्याशी में डूबा था. दूसरा प्रारूप चार वर्षो बाद जैसे–तैसे पारित तो हुआ, पर यह किसी के लिए उपयोगी नहीं रहा था.
अयूब खान ने अपनी ओर से पहल करते हुए स्वयं संविधान लिखा और इसलामिक योजना को धकियाते हुए इसे उदारवाद का अमलीजामा पहनाया. देश के नाम से ‘इसलामिक’ शब्द को हटाते हुए उन्होंने इसे ‘द रिपब्लिक ऑफ पाकिस्तान’ नाम दिया और इसे उत्तरोत्तर संशोधित किया. लेकिन 1962 के पहले संविधान संशोधन में देश के नाम से पहले फिर ‘इसलामिक’ जोड़ा गया.
अयूब खान ने राजनीतिक दलों पर पाबंदी लगा दी. अपने इलेक्टिव बॉडीज डिस्क्वालिफिकेशन ऑर्डर (इबीडीओ) के तहत उन्होंने राजनीतिक विरोधियों को प्रताड़ित करने के साथ ही जेलों में ठूंस किया. दुनियाभर में जारी शीत युद्ध के दौरान अब तक यह देश सोवियत संघ के खिलाफ और साम्राज्यवादी विचाराधारा वाले गुट में शामिल हो चुका था.
पाकिस्तानी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव हसन नासिर को बुरी तरह से प्रताड़ित किया गया और 1960 में कुख्यात लाहौर किले में उनकी मौत हो गयी. ‘लाल किताब’ रखनेवाले छात्रों से तब आत्मघाती जैकेट पहने हुए युवाओं की तरह निबटा जाता था. इस नये देश पर 22 खानदानों (परिवारों, ताकतवर उद्योगपतियों) का पूरा शिकंजा था और तमाम संपत्तियों समेत सभी संसाधनों पर इनका एकाधिकार हो चुका था, जिन्होंने कामगार तबकों पर बुरी तरह से जुल्म ढाये. इस पूरी अवधि में पीआइए की एयर होस्टेसों द्वारा विमान में शराब परोसा जाता था.
मेरा मानना है कि एक उदार राजनीतिक धारा को अपनानेवालों के ‘उदारवाद के प्रदर्शन’ का पाकिस्तानी समाज के विकास की दिशा में कुछ खास प्रभाव नहीं पड़ा. उदारवाद एक राजनीतिक दर्शन है. पाकिस्तान कभी ‘उदार’ देश नहीं था. हुआ सिर्फ यह कि आम लोगों की कीमत पर विशिष्ट तबका मजबूत होता चला गया.
ये साम्राज्यवादियों की तरह पेश आते थे. विशिष्ट तबका अब भी उसी तरह मौजूद है, वैसी ही राजनीतिक प्रक्रिया में शामिल है. मौजूदा समय में यह छिपा हुआ है. कुछ दशकों के बाद हमारे फेसबुक की नयी फीड में शायद हम उनकी आज की तसवीरों को खोज पायेंगे. क्या तब भी आप उसे ‘लाइक’ करेंगे? (साभार : पाकिस्तान के प्रमुख अंगरेजी अखबार ‘डॉन’ में छपे लेख का अनुदित एवं संपादित अंश.)