‘आप’ माने आधा तीतर-आधा बटेर!
प्रमोद जोशी वरिष्ठ पत्रकार दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को 70 में से 67 सीटें मिलना भारी पड़ रहा है. ज्यादातर विधायक इनाम चाहते हैं. इसका मतलब है, वे उस राजनीति की देन नहीं हैं, जिसका दावा पार्टी कर रही है. यह सब घालमेल है. ‘आप’ के नाम पर आधा तीतर-आधा बटेर नहीं […]
प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को 70 में से 67 सीटें मिलना भारी पड़ रहा है. ज्यादातर विधायक इनाम चाहते हैं. इसका मतलब है, वे उस राजनीति की देन नहीं हैं, जिसका दावा पार्टी कर रही है. यह सब घालमेल है. ‘आप’ के नाम पर आधा तीतर-आधा बटेर नहीं चलेगा.
दिल्ली के विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी की जीत भारतीय राजनीति में नयी ‘संभावनाओं की शुरुआत’ थी. पर नेतृत्व की नासमझी ने उन संभावनाओं का अंत कर दिया. अभी यह कहना गलत होगा कि इस विचार का मृत्युलेख लिख दिया गया है. पर इसे जीवित मानना भी गलत होगा. इसकी वापसी के लिए हमें कुछ घटनाओं का इंतजार करना होगा.
यह त्रसद कथा पहले भी कई बार दोहराई गयी है. अब इसका भविष्य उन ताकतों पर निर्भर करेगा, जो इसकी रचना का कारण बनी थीं. भविष्य में उनकी भूमिका क्या होगी, अभी कहना मुश्किल है. अंतिम रूप से सफलता या विफलता के तमाम टेस्ट अभी बाकी हैं. इतना साफ हो रहा है कि संकट के पीछे सैद्धांतिक मतभेद नहीं, व्यक्तिगत राग-द्वेष हैं. यह बात इसके खिलाफ जाती है.
दिल्ली में 49 दिन बाद ही इस्तीफा देने के बाद पार्टी की साख कम हो गयी थी. वोटर ने लोकसभा चुनाव में उसे जोरदार थप्पड़ लगाया. पर माफी मांगने के बाद पार्टी दोबारा मैदान में आयी, तो सफल बना दिया. दिल्ली में उसे मिली सफलता के दो कारण थे. एक तो जनता इस प्रयोग को तार्किक परिणति तक पहुंचाना चाहती थी. दूसरे भाजपा के ‘विजय रथ’ को रोकना चाहती थी. पर जनता आप की नादानियों को बार-बार सहन नहीं करेगी. खासतौर से तब, जब एक के बजाय दो ‘आप’ सामने होंगी. फिलहाल दोनों निष्प्राण हैं. और यह नहीं लगता कि दिल्ली की प्रयोगशाला से निकला जादू आसानी से देश के सिर पर चढ़ कर बोलेगा.
इस पार्टी के पीछे अरविंद केजरीवाल, योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण, संजय सिंह और आनंद कुमार एंड कंपनी की परिकल्पना थी. पर वे निमित्त मात्र थे. असली ताकत जनता की थी, जो इसका इंतजार कर रही थी. अप्रत्याशित सफलता से जन्मे अंतर्विरोधों का भार पार्टी सहन नहीं कर पायी. उसकी वैकल्पिक राजनीति भी सुपरिभाषित नहीं है. वह बार-बार उन्हीं नुस्खों पर वापस लौट रही है, जो दूसरी पार्टियां अपनाती हैं.
‘आप’ की अपील थी कि वह मुख्यधारा की राजनीति से अलग है. इसका दावा करना एक बात है और उसे साबित करना दूसरी बात. आंतरिक लोकतंत्र और उसकी आंदोलनकारी भूमिका के कारण उसके अंतर्विरोध उजागर हो रहे हैं. आंदोलनकारी संगठन की संरचना और राजनीतिक दल की संरचना में बुनियादी फर्क है. कमान-कंट्रोल, निर्णय पद्धति और विवादों के निस्तारण की व्यवस्था के बरक्स दोनों प्रकार के संगठन अलग-अलग तरीकों से चलते हैं. आंदोलनकारी संगठन में कई नेता हो सकते हैं, पर सत्ता की राजनीति में नेतृत्व का एक क्रम होता है.
‘आप’ के भीतरी मतभेदों के बारे में पूरी जानकारी हमारे पास नहीं है. पर यह बात शीशे की तरह साफ है कि अविश्वास गहरे तक बैठा है. यह अविश्वास और धड़ेबाजी मुख्यधारा के राजनीतिक दलों में भी है. पर उन्होंने समाधान सीख लिया है. 1993 में पीवी नरसिम्ह राव ने चुनाव के सहारे पार्टी की कार्यसमिति चुनी, जिसमें बहुसंख्यक सदस्य ऐसे आ गये, जो राव के मनमाफिक नहीं थे. उन्होंने चुनाव रद्द कर दिया. यह कहते हुए कि समाज के दुर्बल वर्गो को पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिला है. इसी तरह 2013 में नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी बनने के पहले कई तरह के पापड़ बलने पड़े थे. पर पार्टी एक बनी हुई है.
‘आप’ नयी राजनीति का नाम लेकर आयी है. यह फर्क नजर भी आना चाहिए. आम प्रतिक्रिया है कि यह दूसरे दलों की तरह सामान्य पार्टी बन कर रह गयी है. शायद उनसे भी ज्यादा खराब. पर पार्टी के बागी यह बात तब कह रहे हैं, जब वे बाहर हो गये हैं. वे यह भी कह रहे हैं ‘न छोड़ेंगे, न तोड़ेंगे, सुधरेंगे और सुधारेंगे.’ अब उन्हें अगले कदम के बारे में सोचना पड़ रहा है. प्रशांत और योगेंद्र ने 14 अप्रैल को अपने समर्थकों की एक बैठक बुलायी है. योगेंद्र का कहना है कि ‘आप’ की भावना को जीवित रखना है. वे कैसे जीवित रखेंगे? सत्ता की राजनीति की चुनौतियां उन्हें भी उसी तरह घेरेंगी, जैसे केजरीवाल को घेरा था.
यह पार्टी सैद्धांतिक रूप से सुविचारित पार्टी नहीं है. इसमें शामिल नौजवान जय प्रकाश आंदोलन में शामिल नौजवानों से कुछ अलग हैं. वक्त भी बदला हुआ है. इसमें आइटी क्रांति के नये ‘टेकी’ हैं, अमेरिका में काम करनेवाले एनआरआइ हैं, दिल्ली, बेंगलुरु, हैदराबाद और मुंबई के नये प्रोफेशनल हैं. कामकाजी लड़कियां और गृहणियां भी हैं.
और गांवों और कस्बों के अपवार्ड मूविंग नौजवान हैं. सत्तर के दशक में भारत के नौजवानों के मन में समाजवाद का जो रोमांच था, वह आज नहीं है. जल-जंगल-जमीन-खेत-खलिहान-औद्योगिक मजदूर और सद्य: विकसित सर्विस सेक्टर से जुड़े टेकी, प्रोफेशनलों की उम्मीदों को यह आंदोलन एक-साथ लेकर चल रहा था. यह मुश्किल संकल्प है. कई तरह की प्रवृत्तियां इस आंदोलन को अपनी तरफ खींचने की कोशिश कर रहीं है. उनमें टकराव होना ही था. आज हो गया, नहीं तो कल होता.
‘स्वराज’ नाम का इसका दस्तावेज विचारधारा के प्रति गहरे विश्वास नहीं जगाता. केजरीवाल मोटे तौर पर मध्यवर्गीय शहरी समाज के सवालों को उठाते हैं और प्रशासन के विकेंद्रीकरण का समर्थन करते हैं. इस अवधारणा को दिल्ली में सफल करके उन्हें दिखाना है. पार्टी में तीन प्रकार की प्रवृत्तियां हैं. एक है गांधीवादी, दूसरी समाजवादी और तीसरी पश्चिमी उदारवादी. पार्टी इन तीनों को जोड़ना चाहती है. गांधी, जेपी और लोहिया के समर्थक इस पार्टी में शामिल हैं.
संयोग से तीनों आंदोलनकारी नेता रहे. तीनों ने सत्ता में कभी हिस्सेदारी नहीं की. उन्हें नेहरू, इंदिरा, वाजपेयी और नरेंद्र मोदी की राजनीति को भी समझना होगा. यहां से विसंगति शुरू होती है. इस फर्क से राजनीति को सुपरिभाषित होना चाहिए. साथ ही इसमें शामिल सहयोगियों की एकजुटता चाहिए. एकजुटता नहीं थी, यह बारंबार साबित हो रही है.
दिल्ली विधानसभा चुनाव में ‘आप’ को 70 में से 67 सीटें मिलना भारी पड़ रहा है. ज्यादातर विधायक इनाम चाहते हैं. इसका अर्थ है, वे उस राजनीति की देन नहीं हैं, जिसका दावा पार्टी कर रही है. यह सब घालमेल है. ‘आप’ के नाम पर आधा तीतर-आधा बटेर नहीं चलेगा. योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण, आनंद कुमार और अजित झा को जिस नाटकीय तरीके से निकाला गया, वह नयी राजनीति की गवाही नहीं देता.
जिस प्रकार की लोकतांत्रिक पार्टी की कल्पना इन चारों की टीम करती है, वैसी पार्टी बनायें. यह टीम पैन-इंडिया राजनीति का संकल्प लेकर चल रही है. उस राजनीति के अंतर्विरोध और गहरे साबित होंगे. इस अभियान को विचारधारा के स्तर पर साफ होने के लिए समय चाहिए.