सत्ता नहीं, लूट का विकेंद्रीकरण है यह
वह करोड़पति हैं. सूद का कारोबार करते हैं. दूसरे का लाइसेंसी हथियार रखते हैं. यह परिचय है, त्रिस्तरीय पंचायतीराज के तहत निर्वाचित एक मुखिया का. मामला पश्चिम चंपारण का है, मगर सच्चई यही है कि ज्यादातर मुखियाओं का हाल एक जैसा है. सरकारी योजनाओं में भारी लूट और जनता के अधिकारों की हकमारी पर उन्हें […]
वह करोड़पति हैं. सूद का कारोबार करते हैं. दूसरे का लाइसेंसी हथियार रखते हैं. यह परिचय है, त्रिस्तरीय पंचायतीराज के तहत निर्वाचित एक मुखिया का. मामला पश्चिम चंपारण का है, मगर सच्चई यही है कि ज्यादातर मुखियाओं का हाल एक जैसा है.
सरकारी योजनाओं में भारी लूट और जनता के अधिकारों की हकमारी पर उन्हें नजर रखनी थी, पर हो रहा है एकदम उल्टा. गांव, पंचायत और ब्लॉक स्तर पर एक ऐसा तंत्र विकसित हो गया है जो विकास योजनाओं में लूट को अंजाम देता है.
इसमें अकेले मुखिया शामिल नहीं हैं, सरकारी अधिकारियों से लेकर बिचौलियों और पंचायतों के जन प्रतिनिधियों तक की भूमिका है. यह चौंकानेवाला तथ्य है कि बिहार में चरपहिया गाड़ियों की कुल बिक्री में से 60 फीसदी ग्रामीण इलाकों में होती है. राज्य के ग्रामीण इलाकों में इस समृद्धि या क्रय क्षमता में बेहिसाब इजाफे का सच क्या है? जन प्रतिनिधियों के आर्थिक उत्थान का उत्स कहां है? बीते दिनों पटना हाइकोर्ट ने 200 से ज्यादा मुखियाओं के खिलाफ प्राथमिकी दायर करने का निर्देश दिया. इन पर सोलर लाइट की खरीद में भारी पैसा बनाने का आरोप है. राज्य में 8463 पंचायते हैं.
गांव के विकास के लिए पैसा जा रहा है. लेकिन उस पैसे का एक हिस्सा लूट लिया जाता है. इसी पैसे से आयी समृद्धि दिखती है. पंचायतों के चुनाव में दंगल का असली कारण भी यही है. दरअसल, जनप्रतिनिधि के मायने बदल गये हैं. जनप्रतिनिधि होने का मतलब है शान-ओ-शौकत, ताम-झाम, भौतिक सुख का स्वामी होना हो गया है. इसमें जनता के प्रति जवाबदेही का भाव गायब है. यह त्रसद है और ऐसे हालात में उम्मीदें दम तोड़ती हुई नजर आती हैं.
पर यह भी सच है कि कई जनप्रतिनिधि ईमानदारी और निष्ठा से काम करना चाहते हैं. लेकिन उनके लिए जगह कम होती जा रही है. बेहतर होता कि त्रिस्तरीय जनप्रतिनिधियों का संगठन भ्रष्टाचार रोकने की दिशा में पहल करता. सार्वजनिक जीवन के आदर्श पेश करता. हर पंचायत की सोशल ऑडिटिंग होती और तब शायद कोई राह निकलती. पर इस संगठन का जोर पंचायतों को और अधिकार देने तक ही सीमित रहा है. कहीं ऐसा न हो कि पंचायतें ‘लूट के विकेंद्रीकरण’ का जरिया भर बन कर न रह जायें!