ऐसे में बेमानी हो चुके कानूनों को खत्म करने की उनकी पहल सराहनीय है. लेकिन, हमारी न्याय प्रणाली की खामियां कानूनों की भरमार और पेचीदगियों तक ही सीमित नहीं हैं. प्रधानमंत्री ने इसमें बेहतरी की जरूरत तो बतायी, पर इसके लिए अपनी सरकार द्वारा उठाये कदमों का कोई ब्योरा नहीं रख सके. देश में अभी जजों की संख्या करीब 19 हजार है, जिनमें 18 हजार निचली अदालतों में कार्यरत हैं. सम्मेलन में प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति एचएल दत्तू ने बताया कि हर 61,865 भारतीय पर एक जज है. प्रधानमंत्री और प्रधान न्यायाधीश, दोनों ने इस बात पर भी चिंता व्यक्त की कि न्यायपालिका में बेहतरीन प्रतिभाएं कम आ रही हैं.
दूसरी ओर देश की अदालतों में तीन करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं. 2040 तक यह संख्या 15 करोड़ हो सकती है. सुप्रीम कोर्ट में ही एक दिसंबर, 2014 तक 64,919 मामले लंबित थे. निचली अदालतों में ढाई करोड़ से अधिक और उच्च न्यायालयों में 44 लाख से अधिक मामलों पर सुनवाई चल रही है. 25 फीसदी से अधिक ऐसे मामले पांच सालों से ज्यादा से लंबित है. ढांचागत खामियों के साथ-साथ पुलिस व प्रशासन की सुस्ती के कारण भी अदालतें समय पर सही फैसला नहीं कर पाती हैं. पुलिस व प्रशासन के साथ-साथ अदालतों में भ्रष्टाचार के मामले भी सामने आते रहे हैं. कुल मिलाकर न्याय में देरी सहित न्याय व्यवस्था की विभिन्न खामियों का सबसे बुरा असर गरीबों और निम्न मध्य वर्ग पर पड़ता है, फिर भी न्यायपालिका पर लोगों का भरोसा कायम पर है. यह पुरानी कहावत है कि न्याय में देरी न्याय देने से इनकार के समान है. ऐसे में जरूरी है कि सरकार न्यायपालिका और अन्य संबंधित पक्षों को विश्वास में लेकर देश में व्यापक न्यायिक सुधार के लिए समुचित कदम उठाये.