विपक्ष की विवशता का संकट

विचारधारा के आधार पर या विकास के विकल्पों के आधार पर पक्ष-विपक्ष का निर्णायक शक्ति परीक्षण अभी बाकी है. लगता है बिहार तथा उत्तर प्रदेश की विधानसभा के चुनाव तक यह प्रतीक्षा बनी रहेगी, जिसमें तयशुदा तौर पर कहा जा सके कि विपक्ष का संकट अब दूर होनेवाला है. हमारा भारतीय जनतंत्र इस समय एक […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | April 6, 2015 5:57 AM
विचारधारा के आधार पर या विकास के विकल्पों के आधार पर पक्ष-विपक्ष का निर्णायक शक्ति परीक्षण अभी बाकी है. लगता है बिहार तथा उत्तर प्रदेश की विधानसभा के चुनाव तक यह प्रतीक्षा बनी रहेगी, जिसमें तयशुदा तौर पर कहा जा सके कि विपक्ष का संकट अब दूर होनेवाला है.
हमारा भारतीय जनतंत्र इस समय एक विचित्र संकट का सामना कर रहा है. कुछ ही दिन पहले तक राजनीति के विद्वान यह मान कर चल रहे थे कि किसी एक दल के आधिपत्य का युग समाप्त हुआ और अब काफी लंबे समय तक हम साझा संगठन सरकारों का दौर देखेंगे. गौरतलब है कि इस ऐतिहासिक बदलाव को देश के भविष्य के लिए शुभ संकेत भी बतलाया गया था और यह दलील पेश की गयी थी कि बहुलता और क्षेत्रीय विविधता के मद्देनजर हमारी संघीय व्यवस्था का तकाजा यही है. विडंबना यह है कि यह स्थापना प्रमेय की प्रतिष्ठा हासिल करने से पहले ही ध्वस्त होती नजर आने लगी है. नरेंद्र मोदी के करिश्माई नेतृत्व ने एनडीए के नाममात्र के आवरण के पीछे अकेले अपने दम पर लोकसभा में बहुमत दिला दिया.
हमारी समझ में इससे भी बड़ा बदलाव था कांग्रेस का नेस्तनाबूद होना. संक्षेप में इतना रेखांकित करना काफी है कि इस घड़ी अतीत की यादों में बसर करनेवाली कभी गौरवशाली रही यह पार्टी आज संसद में विपक्ष की भूमिका निबाहने में नितांत ही असमर्थ है. सुर्खाब की तरह अपनी खाक से पुनर्जीवित होने का सपना देखनेवाले कांग्रेसियों की तादाद घटती जा रही है और यह भ्रम पालना असंभव हो चुका है कि नरेंद्र मोदी की मन मर्जी के मुताबिक चलायी जा रही इस तथाकथित तानाशाही प्रवृत्ति वाली इस सरकार पर जनतांत्रिक अंकुश लगाने का काम वह कर सकती है. ऐसे में कांग्रेस सदन में चाहे जितना शोर मचा ले, लेकिन संवैधानिक प्रणाली के अंतर्गत उसके द्वारा शक्ति प्रदर्शन की संभावना नगण्य है.
अपनी इस दुखद स्थिति के लिए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस खुद जिम्मेवार है. अभी भी हार से कोई सबक सीखने की जगह कांग्रेस के चापलूस नेता सोनिया गांधी और राहुल गांधी के चरण-चुंबन को व्याकुल हैं. अरसे से अदृश्य कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के अचानक प्रकट हो शत्रुओं के संहार की आशा निर्जीव सैनिकों का खून गुनगुना रखेगी, इसी भरोसे पर आज भी अपने को राष्ट्रीय दल माननेवाली कांग्रेस जस-तस घिसट रही है.
वास्तव में हमारी चिंता का विषय कांग्रेस पार्टी का भविष्य नहीं है. दिल्ली विधानसभा के नतीजों ने यह सच भी जगजाहिर कर दिया है कि न तो मोदी मंत्र अमोद्य अस्त्र है और न ही महारथी अमित शाह हर रणक्षेत्र में अपराजेय हैं. भाजपा का सूपड़ा भले कांग्रेस की तरह साफ न हुआ हो, फिर भी हालत उसकी कम दयनीय नहीं समझी जा सकती. विश्लेषक नयी स्थापनाएं करते रहेंगे, पर इस बात को झुठलाना कठिन होता जा रहा है कि सर्वज्ञ माना जानेवाला मतदाता और आम आदमी चुनाव के वक्त हमेशा तर्कसंगत आचरण नहीं करता और न ही उसका मतदान भावावेश से मुक्त होता है. जीतनेवाले उम्मीदवार के पक्ष में बहती हवा जब आंधी की तरह महसूस होती है, तब तमाम पारंपरिक पक्षधरता, वैचारिक रुझान तिनके की तरह उड़ जाते हैं.
अरविंद केजरीवाल तथा आम आदमी पार्टी का जो जादू सर्वप्रथम दिल्ली वालों के सिर पर चढ़ कर बोल रहा था, वह अब दहाड़ कर इस दल में पड़ी भयंकर फूट के बाद मिमियाता दिखलायी देने लगा है. यहां भी परेशानी वही है कि विधानसभा में अरविंद और आम आदमी पार्टी को निरंकुश होने से रोकनेवाला कोई विपक्षी नहीं है! बात इन दो मिसालों तक सीमित नहीं है. कुछ ऐसा ही हाल दूसरे राज्यों- उत्तर प्रदेश तथा पश्चिम बंगाल एवं तमिलनाडु का है. ओड़िशा में नवीन बाबू तो बरसों से एकक्षत्र राज करने के आदी हो चुके हैं.
तो क्या यह सुझाना तर्कसंगत होगा कि हम अपने जनतंत्र में विपक्ष को उपयोगी नहीं समझते? बरसों किसी एक दल के कार्यकर्ता या नेता तक पलक झपकते ही पाला बदल लेते हैं- कोई देश के हित में तो दूसरा अपने समर्थकों के हितों की रक्षा के लिए ऐसा करने को मजबूर होता है. आज भाजपा संसार का सबसे बड़ा राजनैतिक दल होने का दावा कर रही है. महज एक फोन कर सदस्य बन सकने का अभियान रंग लाया है! कभी आपातकाल के आतंक के कारण, तो कभी राजीव के प्रचंड बहुमत से सरकार बनाने के बाद कांग्रेस की सदस्यता के लिए भी भीड़ जुटा करती थी. अर्थात् पक्ष या विपक्ष कोई मायने नहीं रखते अब. पारंपरिक शत्रु जैसे विपक्षी के साथ जब सरकार बनाने के लिए भाजपा जम्मू कश्मीर राज्य में गंठबंधन कर सकती है, तब पक्ष-विपक्ष में भेद करना असंभव हो जाता है. यहां तत्काल यह जोड़ने की दरकार है कि यह समस्या सिर्फ भाजपा और कांग्रेस की नहीं है. भारत की साम्यवादी पार्टियों ने बरसों पहले इस पहचान को धुंधला दिया था. टैक्टिकल मोर्चाबंदी के नाम पर जाने कितने शीर्षासन ये दल साधते रहे हैं. इसका एक अजीबोगरीब नतीजा यह सामने आया है कि किसी नागवार सरीखे वर्गशत्रु को दूसरे सांपनाथ के मुकाबले समर्थन देने की रणनीति अपना कर इस तबके ने अपनी विश्वसनीयता और जनाधार पूरी तरह से गंवा दिया है. आंतरिक मतभेद आत्मघाती कलह का रूप धारण कर सतह पर प्रकट होते रहे हैं.
भाजपा हो या कांग्रेस, समाजवादी दल हो या कम्युनिस्ट पार्टियां अथवा क्षेत्रीय अस्मिता की सिंचाई की फसल काटने में माहिर राजनेता, कोई भी असहमति का स्वर बर्दाश्त नहीं कर सकता.
शायद आज भी हम यह नहीं समझ सके हैं कि विपक्षी का मतलब शत्रु नहीं होता और न ही विपक्षी का कर्तव्य हर स्थिति में विरोध करना होता है. हमारी राजनीतिक प्रणाली एक दलीय नहीं है और न ही यह राष्ट्रपति वाली है. हमारे संसदीय जनतंत्र की सेहत के लिए स्वस्थ समर्थ विपक्ष का होना बेहद जरूरी है. उसकी महत्वपूर्ण भूमिका सदन के भीतर ही नहीं, बल्कि बाहर भी है.
दुर्भाग्य यह है कि आज चुनाव ही हार-जीत की एकमात्र कसौटी बन गये हैं. मतदान वाला जनादेश पूरे भारत के संदर्भ में आज भी खंडित विभाजित तथा दुविधाग्रस्त ही कहा जा सकता है. विचारधारा के आधार पर या विकास के विकल्पों के आधार पर पक्ष-विपक्ष का निर्णायक शक्ति परीक्षण अभी बाकी है. लगता है बिहार तथा उत्तर प्रदेश की विधानसभा के चुनाव तक यह प्रतीक्षा बनी रहेगी कि तयशुदा तौर पर यह कहा जा सके कि विपक्ष का संकट निकट भविष्य में दूर होनेवाला है या नहीं!
पुष्पेश पंत
वरिष्ठ स्तंभकार
pushpeshpant@gmail.com

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