Loading election data...

टिकाऊ नहीं अमेरिकी उछाल!

।। डॉ भरत झुनझुनवाला ।। (अर्थशास्त्री) अभी भारत से जो पूंजी का पलायन हो रहा है, वह पूर्णतया घरेलू कारणों से है. भारत सरकार ने ऋण लेकर घी पीने की नीति अपनायी है. इसीलिए निवेशक भारत से जा रहे हैं. इस समय अमेरिकी अर्थव्यवस्था अपने उछाल पर है. निवेशकों द्वारा टिकाऊ अमेरिकी डॉलर को पसंद […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | August 27, 2013 5:31 AM

।। डॉ भरत झुनझुनवाला ।।

(अर्थशास्त्री)

अभी भारत से जो पूंजी का पलायन हो रहा है, वह पूर्णतया घरेलू कारणों से है. भारत सरकार ने ऋण लेकर घी पीने की नीति अपनायी है. इसीलिए निवेशक भारत से जा रहे हैं.

इस समय अमेरिकी अर्थव्यवस्था अपने उछाल पर है. निवेशकों द्वारा टिकाऊ अमेरिकी डॉलर को पसंद किया जा रहा है. यह भारत से विदेशी पूंजी के पलायन का कारण है. लेकिन अमेरिकी अर्थव्यवस्था में रहा वर्तमान उछाल टिकाऊ होगा, इसमें मुङो संशय है. इसका कारण यह है कि यह सुधार ऋण पर टिका हुआ है.

पिछले समय में अमेरिका ने भारी मात्र में ऋण लेकर अर्थव्यवस्था में खर्च बढ़ाये हैं. इससे कुछ सुधार दिख रहा है. लेकिन कुछ ही समय में निवेशकों को अमेरिकी अर्थव्यवस्था की मूल कमजोरी समझ जायेगी और फिर से संकट आने का मेरा अनुमान है.

अमेरिकी सरकार का बजट घाटा पिछले दशक में लगातार बढ़ता जा रहा है. इस घाटे की भरपाई करने के लिए सरकार को ऋण लेने पड़ रहे हैं. ऋण के भार के कारण अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों ने अमेरिका की रेटिंग घटा दी है. अमेरिका की दो प्रमुख पार्टियां रिपब्लिकन एवं डिमोक्रेटिक हैं.

दोनों पार्टियां मान रही हैं कि समस्या तात्कालिक है. अमेरिकी अर्थव्यवस्था सुदृढ़ है. कुछ समय तक बजट में कटौती कर दी जाये, तो सब ठीक हो जायेगा. अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर अल्पकालिक संकट पड़ा है.

एथलीट कुछ समय आराम कर ले, तो पुन: मुश्तैदी से खेल में प्रवेश करता है. इसी प्रकार कुछ समय पार कर लेने पर अमेरिकी अर्थव्यवस्था पुन: चल निकलेगी और सब पूर्ववत् ठीक हो जायेगा.

मेरी समझ में यह आकलन गलत है. वास्तव में अमेरिकी अर्थव्यवस्था में मौलिक कमजोरियां प्रवेश कर जुकी हैं और अमेरिकी नागरिकों के जीवन स्तर में कटौती करना जरूरी हो गया है. यह समय सजर्री का है कि पेन किलर देने का.

मूल प्रश्न है कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था में वर्तमान में दिख रहा विकास टिकाऊ होगा अथवा वह देश एक बार फिर से संकट में पड़ेगा? इस परिप्रेक्ष में अमेरिकी संकट के अल्पकालीन होने के पक्ष में दिये जा रहे तर्को का विश्लेषण करना जरूरी है. पिछले 100 वर्षो में प्रमुख तकनीकी इजाद अमेरिका में हुए हैं, जैसे असेंबली लाइन पर कार का उत्पादन, परमाणु ऊर्जा, पर्सनल कंप्यूटर एवं इंटरनेट. इन अविष्कारों को अमेरिका ने दूसरे देशों को महंगा बेच कर पूर्व में भारी आय अजिर्त की है.

जैसे माइक्रोसॉफ्ट द्वारा बनाये गए विंडोज सॉफ्टवेयर की बिक्री से अमेरिका को भारी लाभ हुआ है. तर्क यह है कि आविष्कारों का यह क्रम जारी रहेगा, चूंकि आज भी दुनिया के सभी देशों के प्रखर वैज्ञानिकों का अमेरिका की ओर पलायन जारी है. इस तर्क को बल 1997 के अनुभव से मिलता है.

उस समय पूर्वी एशिया के संकट के साथसाथ अमेरिका में मंदी छा रही थी, परंतु इंटरनेट की क्रांति के साथसाथ आइटी कंपनियों के शेयर में भारी उछाल आया और मंदी छूमंतर हो गयी. यह अनुभव निश्चित रूप से सही है परंतु इस अनुभव को बारबार दोहराना निश्चित नहीं है. इंग्लैंड का ही उदाहरण लें.

भाप इंजन एवं पॉवरलूम का अविष्कार उस देश में हुआ था. उस समय इंग्लैंड को विश्व के कारखाने की संज्ञा दी गयी थी, परंतु समय क्रम में इंग्लैंड अपनी तकनीकी अगुआई को बना कर नहीं रख सका और पिछड़ता चला गया. ठीक इसी तरह से अमेरिका का अगुआ बने रहना भी कोई जरूरी नहीं है.

अमेरिकी उछाल के अल्पकालीन होने के पक्ष में दिया जा रहा दूसरा तर्क पेट्रोडॉलर का है. अस्सी के दशक में ओपेक देशों (तेल निर्यातक देशों) ने तेल के मूल्यों में भारी वृद्घि की थी. इससे एक बारगी अमेरिका को झटका लगा था, परंतु वह देश शीघ्र ही संभल गया. हुआ यूं कि अमेरिका द्वारा तेल की खरीद के लिए अदा की जा रही रकम वास्तव में अमेरिका से बाहर गयी ही नहीं.

तेल निर्यातक देशों ने अपनी आय के एक बड़े हिस्से को वापस अमेरिका में ही निवेश कर दिया. मसलन, अमेरिका की तेल क्रेता कंपनी एक्सान ने एक करोड़ डॉलर का अतिरिक्त पेमेंट सऊदी अरब के राजघराने को तेल के ऊंचे मूल्यों के एवज में किया. यह रकम न्यूयॉर्क स्थित एक्सान के खाते से न्यूयॉर्क स्थित सऊदी अरब खाते में ट्रांसफर कर दी गयी.

सऊदी अरब यदि इस रकम को सऊदी अरब ले जाता अथवा इससे मशीन आदि खरीद कर सऊदी अरब भेज देता, तो अमेरिका की संपत्ति में उतनी कटौती होती. परंतु सऊदी अरब ने ऐसा नहीं किया. उन्होंने इस रकम का पुनर्निवेश अमेरिका में ही कर दिया जैसे मैनहेटन में प्रॉपर्टी खरीदी अथवा अमेरिकी कंपनियों के शेयर खरीदे. इस प्रकार वह रकम न्यूयॉर्क में ही रही, केवल रकम की मिलकियत बदल गयी.

यूं समझें कि अमेरिका के प्रॉफिट एंड लॉस खाते में एक करोड़ का घाटा हुआ, परंतु अमेरिका की बैलेंस शीट में एक करोड़ की पूंजी की आवक हो गयी. इस प्रवाह को पेट्रोडॉलर की संज्ञा दी गयी थी. तेल के लिए अदा की गयी रकम के अमेरिका में ही रहने से अमेरिका मंदी की मार से बच गया था.

लेकिन मेरा आकलन है कि सऊदी अरब जैसे देश पेट्रोडॉलर का निवेश अमेरिका में लंबे समय तक नहीं करेंगे. पूर्व में अमेरिका सशक्त बना रहा, क्योंकि पेट्रोडॉलर का निवेश अमेरिका में होता रहा. इस समय परिस्थिति बिल्कुल भिन्न है. सऊदी अरब को स्पष्ट दिख रहा है कि अमेरिका में निवेश की गयी रकम की कीमत आनेवाले समय में गिरने की संभावना है.

चूंकि अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर ऋण का बोझ बढ़ता जा रहा है. इसलिए मेरा आकलन है कि पेट्रोडॉलर का पुनर्निवेश अमेरिका में होकर चीन एवं दूसरे देशों में किया जायेगा. तदनुसार अमेरिका द्वारा तेल की खरीद के लिए अदा की गयी रकम अमेरिका से बाहर चली जायेगी और मंदी गहराती जायेगी.

इन कारणों को देखते हुए ऐसा लगता है कि अमेरिका की वर्तमान तेजी अल्पकालिक होगी. मूल रूप से अमेरिका विश्व बाजार में अपना स्थान नहीं बना पा रहा है. ऋण लेकर रहा यह उछाल स्थाई नहीं होगा.

जरूरी है कि अमेरिकी नेता अपनी जनता को स्पष्ट रूप से बताएं कि पूर्व में स्थापित ऊंचे जीवन स्तर वर्तमान में टिकाऊ नहीं रह गये हैं, क्योंकि नयी तकनीकों का इजाद ढीला पड़ गया है. उन्हें जनता को बताना चाहिए कि जीवन स्तर में गिरावट जरूरी है. प्रयास होना चाहिए कि जनता को गिरते जीवन स्तर से एडजस्ट करने में मदद दी जाये.

अभी भारत से जो पूंजी का पलायन हो रहा है, वह पूर्णतया घरेलू कारणों से है. भारत सरकार ने ऋण लेकर घी पीने की नीति अपनायी है. इसीलिए निवेशक भारत को त्याग कर कोरिया चीन जैसे देशों की ओर जा रहे हैं. यानी अमेरिकी अर्थव्यवस्था में उछाल हमारे संकट का मूल कारण नहीं है.

Next Article

Exit mobile version