न्याय में देरी से कम हो सकता है भरोसा

न्याय मिलने में हो रही देरी के बारे में गहन सोच-विचार करने की आवश्यकता है, क्योंकि समय पर होनेवाले, सही और सधे हुए न्यायिक फैसले न्यायपालिका में आम जन के भरोसे की पहली शर्त है. स्वतंत्र और समर्थ न्याय-प्रणाली किसी भी सभ्य समाज का आधार है. इसके बिना लोकतंत्र की तो कल्पना भी नहीं की […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | April 10, 2015 5:31 AM

न्याय मिलने में हो रही देरी के बारे में गहन सोच-विचार करने की आवश्यकता है, क्योंकि समय पर होनेवाले, सही और सधे हुए न्यायिक फैसले न्यायपालिका में आम जन के भरोसे की पहली शर्त है.

स्वतंत्र और समर्थ न्याय-प्रणाली किसी भी सभ्य समाज का आधार है. इसके बिना लोकतंत्र की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती है. न्याय पाने का अधिकार महत्वपूर्ण मानवाधिकारों में एक है. हमारे संविधान में भी इसे मौलिक अधिकारों में शामिल किया गया है. परंतु, लचर और लापरवाह दशा और दिशा के कारण भारतीय न्याय व्यवस्था में तमाम खामियां घर कर गयी हैं. भ्रष्टाचार, कानूनी पेचीदगियां, महंगे शुल्क जैसी समस्याएं न्याय पाने की राह में बड़ी बाधाएं बनी हुई हैं. लेकिन, सबसे अहम परेशानी मामलों के निपटारे में होनेवाली देरी है.

एक बहुत प्रचलित कहावत है कि देर से मिला न्याय असल में न्याय देने से इनकार के समान है. इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति पर संसद से लेकर गांवों-कस्बों के नुक्कड़ों-चौराहों पर बहसें होती रहती हैं. बीते रविवार को न्यायाधीशों के सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश एचएल दत्तु ने भी इन चिंताओं को रेखांकित किया था.

अब एक अंगरेजी दैनिक में छपी खबर के मुताबिक कोयला घोटाले की जांच कर रही सीबीआइ की विशेष अदालत द्वारा पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह को आरोपित के रूप में पेश होने के सम्मन पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा लगायी गयी रोक पर सुनवाई में कम-से-कम तीन वर्ष लग सकते हैं. उल्लेखनीय है कि विशेष सीबीआइ अदालत ने 11 मार्च को डॉ सिंह को भारतीय दंड संहिता के आपराधिक षड्यंत्र, आपराधिक विश्वासघात और भ्रष्टाचार रोकथाम कानून के प्रावधानों के अंतर्गत आरोपित के रूप में आठ अप्रैल को हाजिर होने का आदेश दिया था.

इसके विरुद्ध उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय में 184 पन्नों की एक याचिका दायर कर सम्मन और उसमें उल्लिखित धाराओं की वैधानिकता पर ही कानूनी तथा संवैधानिक सवाल उठाये थे. एक अप्रैल को सर्वोच्च न्यायालय ने उक्त सम्मन पर अस्थायी रोक लगाते हुए सुनवाई का फैसला किया था, पर अगली सुनवाई की कोई तारीख तय नहीं की थी. संवैधानिक प्रावधानों की वैधानिकता से संबंधित ऐसी याचिकाओं की लंबी फेहरिस्त और उनके निपटारे की धीमी गति के आधार पर ही इस खबर में अनुमान लगाया गया है कि डॉ सिंह के मामले पर सुनवाई में सर्वोच्च न्यायालय को तीन से पांच वर्ष लग सकते हैं.

ऐसे में बड़ा सवाल यह नहीं है कि डॉ सिंह की याचिका सही है या नहीं अथवा विशेष सीबीआइ अदालत ने उन्हें उचित आधारों पर सम्मन जारी किया था या नहीं, बड़ा सवाल यह है अदालतों में मुकदमे बरसों तक लंबित क्यों रह जाते हैं तथा इस परेशानी का हल आखिर कब तलाशा जायेगा?

मौजूदा हालात ऐसे हैं कि देश की निचली से लेकर सबसे बड़ी अदालत तक में कुल तीन करोड़ से अधिक मामले विचाराधीन हैं, जिनमें करीब 25 फीसदी पांच वर्षो से अधिक समय से लंबित हैं. यह समय किसी एक अदालत का है, यदि किसी मामले की यात्र निचली से ऊपरी अदालत तक हो, तो निपटारे में लगनेवाले समय का आंकड़ा बेहद अफसोसनाक हो जाता है. निचली अदालतों में करीब ढाई करोड़ और उच्च न्यायालयों में 44 लाख से अधिक मामले लंबित है. सर्वोच्च न्यायालय में भी विगत दिसंबर तक लंबित मामलों की संख्या 64,919 थी. आजादी के इतने वर्षो बाद भी ऊपरी अदालतों में भी त्वरित न्याय की व्यवस्था नहीं हो पाना दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जायेगा.

न्यायपालिका की यही गति रही, तो 2040 तक लंबित मामलों की कुल संख्या 15 करोड़ हो जाने का अनुमान है. देश में जजों की कुल संख्या करीब 19 हजार है, जिनमें 18 हजार निचली अदालतों में कार्यरत हैं. न्यायाधीश दत्तु की मानें, तो प्रति 61,865 भारतीयों पर एक जज है. दिसंबर, 2013 के आंकड़ों के मुताबिक निचली अदालतों में प्रति जज औसतन 1,776, उच्च न्यायालयों में प्रति जज 6,963 और सर्वोच्च न्यायालय में प्रति जज 2,288 मामले लंबित हैं. प्रधान न्यायाधीश ने निचली अदालतों को पांच वर्ष के भीतर सुनवाई पूरी करने का निर्देश दिया है. उनके अनुसार सर्वोच्च न्यायालय में यह लक्ष्य दो वर्ष का रखा गया है.

जहां तक कोयला घोटाले या मनमोहन सिंह की पेशी का मामला है, सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआइ को जांच या कार्यवाही से मना नहीं किया है. लेकिन इस मामले में अंतिम निर्णय आने में अभी काफी वक्त लग सकता है. फिलहाल, इस समाचार के संदर्भ में न्याय मिलने में हो रही देरी और सुनवाई की मंथर गति के बारे में गहन सोच-विचार करने की आवश्यकता है, क्योंकि समय पर होनेवाले, सही और सधे हुए न्यायिक फैसले न्यायपालिका में आम जन के भरोसे की पहली शर्त है.

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