आरक्षण बनाम सामाजिक न्याय
योगेंद्र यादव सदस्य, आम आदमी पार्टी सवाल सिर्फ जाटों के आरक्षण का नहीं है. सामाजिक न्याय का सबसे बड़ा सवाल गांव और किसानी के संकट का है. आरक्षण के पक्ष-विपक्ष में लामबंद लोगों को सोचना होगा कि कहीं राजनीति इस बड़े मुद्दे से ध्यान बंटाने की कोशिश तो नहीं कर रही. सत्ता के खेल देखिये. […]
योगेंद्र यादव
सदस्य, आम आदमी पार्टी
सवाल सिर्फ जाटों के आरक्षण का नहीं है. सामाजिक न्याय का सबसे बड़ा सवाल गांव और किसानी के संकट का है. आरक्षण के पक्ष-विपक्ष में लामबंद लोगों को सोचना होगा कि कहीं राजनीति इस बड़े मुद्दे से ध्यान बंटाने की कोशिश तो नहीं कर रही.
सत्ता के खेल देखिये. इधर किसानों की फसल बर्बाद हो रही है, उधर राजनीति जाट आरक्षण पर बयानबाजी में उलझी है. जो सरकार भू अधिग्रहण के सवाल पर किसानों के हक में झुकने को तैयार नहीं है, वह जाट आरक्षण को लेकर सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दायर करने के लिए मान गयी है. इस याचिका से कुछ हासिल होना नहीं है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर पुनर्विचार वही बेंच करेगी और फैसला पलटने की गुंजाइश नहीं के बराबर है.
जिस दिन कांग्रेस सरकार ने जाट आरक्षण की घोषणा की थी, हर कोई जानता था कि यह आदेश कोर्ट में नहीं टिकेगा. कांग्रेस सोचती थी घोषणा करके हम वोट लूट लें! विपक्ष सोचता था हम विरोध करके बुरे क्यों कहलायें. जब बीजेपी सत्ता में आयी तो उसने भी कोर्ट में कांग्रेस के फैसले को समर्थन दिया, जो खारिज होने ही वाला था. अब जब फैसला आ गया है, तो मन ही मन सब को तसल्ली है, लेकिन वे इसका विरोध करने का स्वांग कर रहे हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने जाट आरक्षण को खारिज करनेवाले फैसले में कुछ भी नया नहीं कहा है. बीते दशकों में आरक्षण से सबंधित सभी फैसलों में न्यायपालिका ने बार-बार यही कहा है कि किसी भी जाति को पिछड़े वर्ग के तहत आरक्षण देने से पहले यह प्रमाण देना होगा कि यह जाति सामाजिक और शैक्षणिक तौर पर सामान्य वर्ग की तुलना में बहुत पीछे है.
1992 में इंदिरा साहनी केस में ऐतिहासिक फैसले में (जिसे मंडल विवाद पर फैसले की तरह याद किया जाता है) सुप्रीम कोर्ट ने पिछड़ापन की कसौटी बना दी थी. साथ ही इसे तय करने के लिए एक नयी व स्वतंत्र संस्था ‘राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग’ के निर्माण का आदेश भी दिया था. उसके बाद से आरक्षण के मामलों की सिफारिश इसी संस्था के जरिये होती है.
इस संस्था ने जाट आरक्षण की सिफारिश से इनकार कर दिया था. यही नहीं, संस्था ने आंकड़ों के आधार पर निष्कर्ष निकाला था कि जाट समुदाय सुप्रीम कोर्ट की कसौटी के हिसाब से पिछड़ा नहीं है. इसके बावजूद बीते साल सरकार ने चुनाव से पहले जाट आरक्षण की घोषणा कर दी. कांग्रेस को वोट नहीं मिले, पर कुछ कांग्रेसी नेताओं की दुकान चमक गयी. मामला जब कोर्ट में आया तो उसने वही सवाल पूछे जो उसे पूछने थे. जवाब किसी के पास था नहीं, सो आदेश खारिज हो गया.
एक लिहाज से देखें तो मामला सीधा-सीधा वोट बैंक की राजनीति का है, पर इस किस्से के पीछे सामाजिक न्याय की राजनीति की विफलता छुपी है. सवाल सिर्फ यह नहीं है कि जाटों को आरक्षण मिले या नहीं. बड़ा सवाल है कि जाट जैसे जितने भी खेतिहर समुदाय हैं, व्यवस्था में उन्हें न्याय मिल रहा है या नहीं और अगर सब किसानों के साथ अन्याय हो रहा है, तो उनके साथ न्याय कैसे हो सकता है?
इस बड़े सवाल को आरक्षण की आड़ में जाट बनाम गैर जाट के झगड़े में फंसा दिया जाता है. इस व्यवस्था के दो शिकार एक-दूसरे से उलझ जाते हैं. इससे सामाजिक न्याय की राजनीति सामाजिक न्याय की दुश्मन दिखने लगती है. सामाजिक न्याय को सिर्फ आरक्षण में समेटने की यही दिक्कत है.
आज किसान, खेती और गांव हर तरह के अन्याय के शिकार हैं. गांव में शिक्षा और रोजगार के अवसर नहीं हैं. खेती घाटे का सौदा बन गयी है. कोई किसान अपने बेटे को किसान बनाना नहीं चाहता. सरकारी कर्मचारियों का सातवां वेतन आयोग बन गया है, लेकिन किसानों की आय कैसे बढ़े, इसकी चिंता किसी को नहीं है.
यह संकट जितना किसी जाट का है, उतना ही हर खेतिहर समुदाय का है. खेतिहर समुदायों को आमदनी का संकट है, रोजगार का संकट है, शहरी जीवन में संस्कृति का संकट है. सरकारी नौकरी में आरक्षण से इन जातियों के चंद परिवारों को तो फायदा हो जाता है, लेकिन इन समुदायों की स्थिति वही की वही रहती है. आरक्षण ऊंट के मुंह में जीरे के समान साबित होता है.
आज अनुसूचित जाति और जनजाति को सिर्फ जाति के आधार पर चिह्न्ति करना समझ में आता है, पर बाकी समुदायों के बारे में सिर्फ जाति का आधार काफी नहीं, अमीरी-गरीबी, शहर-गांव, लड़का- लड़की के अंतर को देखना भी जरूरी है. अगड़ी जाति के गरीब परिवार की गांव में पढ़ रही लड़की को शिक्षा के जो अवसर मिलते हैं, वे पिछड़ी जाति के शहरी मध्यमवर्गीय परिवार के लड़के की तुलना में कहीं नहीं ठहरते. सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा है कि पिछड़ेपन को जांचते समय इन बातों को ध्यान में रखने की जरूरत है. आरक्षण का फायदा पा चुके मध्यमवर्गीय परिवार के बच्चों को तो आरक्षण की कतार में पीछे किया ही सकता है.
सामाजिक न्याय का सबसे बड़ा सवाल गांव और किसानी के संकट का है. आरक्षण के पक्ष-विपक्ष में लामबंद लोगों को सोचना होगा कि कहीं राजनीति इस बड़े मुद्दे से ध्यान बंटाने की कोशिश तो नहीं कर रही.