क्या दलीय स्वार्थ देश से बड़े हो गये हैं?
तरुण विजय राज्यसभा सांसद, भाजपा हवा में नये, अच्छे, सुरक्षित बदलाव की गंध है. देश कुछ उम्मीद, कुछ साहस, कुछ विश्वव्यापी प्रतिष्ठा अर्जित करने लगा है. यह बदलाव भारत के लिए अच्छा है, तो राजनीतिक दुराग्रहों और वैचारिक शत्रुताओं की संकीर्णता से ऊपर उठना होगा. कल तक जिस देश की सारी दुनिया में एक भ्रष्ट […]
तरुण विजय
राज्यसभा सांसद, भाजपा
हवा में नये, अच्छे, सुरक्षित बदलाव की गंध है. देश कुछ उम्मीद, कुछ साहस, कुछ विश्वव्यापी प्रतिष्ठा अर्जित करने लगा है. यह बदलाव भारत के लिए अच्छा है, तो राजनीतिक दुराग्रहों और वैचारिक शत्रुताओं की संकीर्णता से ऊपर उठना होगा.
कल तक जिस देश की सारी दुनिया में एक भ्रष्ट और आहत-महिलाओं वाले देश की छवि थी, वह आज जब विकास और सुरक्षा की ओर बढ़ने का आत्मविश्वास दिखाने लगा, तो अचानक राजनीति और मीडिया में संदेह का शोर उठाया जाता दिख रहा है. जनता की स्मृति कमजोर होती है.
वह समय, जब हर दिन हर अखबार का पहला पन्ना एक नये भ्रष्टाचार, घोटाले और महिलाओं पर आक्रमण की सुर्खियों वाला होता था, बहुत अतीत की बात नहीं है. क्या भ्रष्टाचार आज कहीं भी चर्चा या चिंता का विषय माना जाता है? मोदी के विरोधी भी यह स्वीकार करते हैं कि सरकार के कामकाज में चुस्ती आयी है, राजनीति से भ्रष्टाचार की चर्चा ही गायब हो गयी है, कर्मचारी वक्त पर आने लगे हैं, पत्रों के जवाब ही नहीं मिल रहे बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों में हर आपदा के वक्त मंत्री किसानों से मिलने जा रहे हैं.
सिर्फ दस महीने में असंभव सी दिखनेवाली बातें संभव हो पायीं, तो क्या इसे सिर्फ इसलिए हल्के से लेते हुए नजरअंदाज कर देना चाहिए, क्योंकि इससे मोदी सरकार को लाभ होगा? क्या मोदी सरकार का राजनीति विरोध ऐसी विपक्षी और पूर्वाग्रह ग्रस्त मीडिया की मजबूरी होना चाहिए कि देश बौना हो जाये और हमारे राजनीतिक स्वार्थ उससे बड़े हो जायें?
यही कारण है कि किसानों के बारे में अचानक वे बात करने लगे हैं कि जिनका कभी किसान हित से संबंध नहीं रहा. कांग्रेस सरकार जो भूमि अधिग्रहण अधिनियम लायी थी, उसमें भयानक त्रुटियां निकलीं. एक भी राज्य सरकार, जिनमें कांग्रेस शासित सरकारें प्रमुख थीं, ने उस कानून का उपयोग नहीं किया. एक इंच जमीन भी अधिग्रहीत नहीं हुई.
कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों ने ही उसका विरोध किया. जिन तेरह कानूनों के अंतर्गत सर्वाधिक जमीन अधिग्रहीत की जाती है, उसमें ही किसान को उचित मुआवजे का प्रावधान नहीं किया गया था- इन तेरह अधिनियमों में प्राचीन संरक्षित स्मारक अधिनियम 1958, परमाणु ऊर्जा अधिनियम 1962, दामोदर घाटी कॉरपोरेशन अधिनियम 1948, भारतीय ट्रामवे अधिनियम 1886, भू-अधिग्रहण अधिनियम (खान) 1885, मेट्रो रेलवे (निर्माण) अधिनियम 1978, राष्ट्रीय राजमार्ग अधिनियम 1956, पेट्रोलियम एवं खनिज पाइप लाइन (भू उपयोगकर्ता के अधिकार का अधिग्रहण) अधिनियम 1962, बिजली अधिनियम 2003 और रेलवे अधिनियम 1989 आदि शामिल थे.
ये सभी न सिर्फ नये भू-अधिग्रहण विधेयक में जोड़े गये, बल्कि किसानों को चार गुना मुआवजे, उनके बच्चों में से एक को नौकरी देने तथा यह अनिवार्य करने कि जिला प्रशासन घोषित करेगा कि किसे, कहां और किस स्तर की नौकरी दी जा रही है- जैसे प्रावधान जोड़े गये. साथ ही, भूमि-अधिग्रहण की स्थिति में विकसित जमीन का 20 प्रतिशत भू-स्वामी को मिलेगा, जो उसकी वित्तीय स्थिति को कई गुना बेहतर करेगा.
इतना ही नहीं, पहले यह प्रावधान था, जैसे बांध निर्माण के लिए उतनी भूमि अधिग्रहीत की जाती थी, जितनी भूमि में अगले सौ वर्षो तक बांध के पानी के फैलाव का आकलन होता था. उस जमीन में भले ही 99 वर्षो तक पानी न भरे, फिर भी उन 99 वर्षो तक जमीन खाली रहती थी, किसान का हक खत्म हो जाता था.
पहली बार इस अधिनियम में संशोधन किया गया है कि अगर अधिग्रहीत जमीन में बांध का पानी नहीं आया है, तो जब तक पानी आने की संभावना न हो, तब तक अधिग्रहण के बावजूद किसान खेती करता रहेगा. इस क्रांतिकारी सोच का विरोध क्या किसानों का हित साधेगा? जो नेता भू-अधिग्रहण अधिनियम में ‘स्वीकृति’ के प्रावधान पर चिल्ला रहे हैं, वे जनता को अंधेरे में रख रहे हैं कि पहले उनके द्वारा पारित कानून में ही ‘स्वीकृति’ का प्रावधान नहीं था. तब उसकी अनुपस्थिति किसान हित में थी और उससे क्षति होगी?
कोई नरेंद्र मोदी की आंखों में झांक कर देखे और पूछे कि क्या यह प्रधानमंत्री किसानों से छल कर सकता है? क्या वह किसी भी स्वार्थ से प्रेरित होकर देश की जनता को बरगला सकता है? क्या उस व्यक्ति के कर्तव्य और व्यक्तित्व में कोई भी किसी भी प्रकार का दोहरापन या निहित स्वार्थ का लेशमात्र भी दिखता है? कोई संदेह हो तो मोदी की आंखों में देखो, वहां सिर्फ विश्वास और गरीब का हित ही दिखेगा? वह व्यक्ति जीवन की आखिरी सांस तक सिर्फ भारत को समृद्ध देशों की कतार में आगे खड़ा करने के लिए लड़ रहा है. सिर्फ विरोध की राजनीति के कारण देश के विकास को रोकना आत्मघाती होगा.
इतने झूठे और भयानक दुष्प्रचार वाले राजनीतिक आक्रमण किये जा रहे हैं कि लगता है कि किसी व्यापक षड्यंत्र के अंतर्गत देश की छवि बिगाड़ी जा रही है. अल्पसंख्यकों पर हमले की बातें ऐसी ही थी, जिनमें किसी संगठन या योजनाबद्ध हमले की कोई पुष्टि नहीं हुई. रेलवे में आजादी के बाद 60 वर्षो में सरकारों ने केवल 12 हजार किमी रेल लाइन बिछायी, उसे गांवों और सरहदी इलाकों में ले जाने के लिए पूंजी निवेश पहली बार किया जा रहा है. मई 2014 से अब तक पेट्रोल की कीमतें ग्यारह बार और डीजल की कीमतें सात बार घटायी गयी हैं. सांप्रदायिक घटनाओं में 22 प्रतिशत की कमी आयी है.
गैस सिलेंडर प्रति परिवार नौ से बारह किये गये हैं और प्रत्यक्ष हस्तांतरित लाभ (पहल) के अंतर्गत उपभोक्ताओं के बैंक खातों में सीधे अनुदान (सब्सिडी) 48 घंटे में जमा की जा रही है. दुनिया का यह सबसे बड़ा नकद स्थानांतरण कार्यक्रम है, जिसमें 23 फरवरी, 2015 तक 11.33 करोड़ उपभोक्ता जुड़े और 5,920 करोड़ रुपये जमा हुए.
हवा में नये, अच्छे, सुरक्षित बदलाव की गंध है. देश कुछ उम्मीद, कुछ साहस, कुछ विश्वव्यापी प्रतिष्ठा अर्जित करने लगा है. यह बदलाव भारत के लिए यदि अच्छा है, तो राजनीतिक दुराग्रहों और वैचारिक शत्रुताओं की संकीर्णता से ऊपर उठना होगा. सदियों बाद नये सूर्योदय की लालिमा को हम राजनीतिक अंध-विरोध के चश्मे से न देखें, तो देश के बढ़ने के साथ-साथ हम सब बढ़ेंगे. विरोध भारत-विरोधी कार्यो का हो, भारत-हित के बिंदु तो सर्वानुमति की मांग करते हैं. अंगरेजों को निकालने के लिए यदि देश एकजुट हुआ था, तो गरीबी, बदहाली, असुरक्षा को निकालने के लिए भी एकजुटता चाहिए.