आखिर सबकी भूख मिटाने का कानून धरातल पर आ रहा है. लोकसभा में बिल पारित होने के बाद इसकी आगे की अड़चनें भी दूर हो जाएंगी. इस महत्वाकांक्षी कानून के तहत केंद्र सरकार देश की दो तिहाई आबादी को एक से तीन रुपये प्रति किलो की रियायती दरों पर हर महीने पांच किलो अनाज देगी. लेकिन इसे ठीक से अमल में लाना सबसे बड़ी चुनौती है. अन्यथा इसका हश्र भी शिक्षा का अधिकार कानून और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश बढ़ाने के लिए दी गयी छूटों की तरह ही होना तय है. सार्वजनिक वितरण प्रणाली को दुरुस्त किये बिना इतनी बड़ी आबादी को हर माह पांच किलो अनाज देना मुश्किल काम है. इसीलिए विपक्ष ने इसे ‘वोट सुरक्षा कानून’ कहा है.
2009 में यूपीए के चुनावी घोषणापत्र में वादा किया था कि सत्ता में वापसी पर सरकार सौ दिन के भीतर खाद्य सुरक्षा बिल लायेगी, पर इसमें सबा चार साल लगे. जनकल्याण की दृष्टि से खाद्य सुरक्षा कानून अहम है, क्योंकि इससे 67 फीसदी आबादी को सस्ता अनाज पाने का कानूनी हक मिलेगा. पर इतनी बड़ी योजना को जमीन पर उतारने के लिए सवा लाख करोड़ रुपये की धनराशि किन स्नेतों से हासिल होगी, इसका विधेयक में कोई उल्लेख नहीं है. हालांकि इतनी धनराशि जुटाना सरकार के लिए मुश्किल नहीं है, क्योंकि वह पिछले कुछ सालों से हर वित्तीय वर्ष में औद्योगिक घरानों को करों में पांच से छह लाख करोड़ रुपये की छूट दे रही है.
इसके लिए अनाज का उत्पादन, भंडारण और वितरण भी अहम सवाल है. बिल के लागू होने पर साढ़े छह हजार टन अतिरिक्त अनाज की जरूरत होगी. कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए इस क्षेत्र में निवेश बढ़ाना एक चुनौती है. इसके लिए अतिरिक्त खाद, कीटनाशकों और सिंचाई सुविधाओं की जरूरत होगी. अनाज का उचित भंडारण भी बड़ी समस्या है. फिलहाल भारतीय खाद्य निगम के गोदामों की भंडारण क्षमता 664 लाख टन है. ज्यादा पैदावर होने पर करीब 250 लाख टन अनाज खुले में पड़ा रहता है. इसमें बड़ी मात्र में अनाज बारिश में खराब हो जाता है. समस्या के हल के लिए खाद्य आपूर्ति मंत्रलय ने केंद्र सरकार को सलाह दी है कि मनरेगा के माध्यम से पंचायतों में भंडार घरों का निर्माण बड़ी संख्या में कराया जाये. साथ ही पंचायतों में किसानों के समूह बना कर उन्हें भंडारण की जिम्मेवारी सौंपी जाये. इसी अनाज को पीडीएस के माध्यम से सस्ती दरों पर खाद्य सुरक्षा के दायरे में आनेवाले गरीबों को बेचा जाये. इससे अनाज का जो छीजन लदाई-ढुलाई में होता है, उससे निजात मिलेगी और यातायात खर्च भी बचेगा. पर एक साल पहले की इस सिफारिश को विधेयक में शामिल नहीं किया गया, क्योंकि नौकरशाही को आमद इन्हीं मदों से बिना किसी अड़चन के होती है.
केंद्र सरकार को उन राज्य सरकारों से मशविरा लेने की भी जरूरत थी, जो अपने ही मौजूदा आर्थिक स्नेतों के बूते गरीबों को एक व दो रुपये किलो अनाज देने लगे हैं. वर्तमान में मध्य प्रदेश के अलावा छत्तीसगढ़, तमिलनाडु, ओड़िशा और पश्चिम बंगाल की सरकारों ने अपनी गरीब व वंचित आबादी को भोजन का अधिकार दिया हुआ है. छत्तीसगढ़ सरकार के खाद्य सुरक्षा कानून को तो एक आदर्श नमूना माना जा रहा है.
खाद्य सुरक्षा की व्यवस्था पीडीएस के माध्यम से ही आगे बढ़ायी गयी है, इसलिए इसके सही कार्यान्वयन पर संदेह वाजिब है. फिर भी इसमें कुछ ऐसे उपाय किये गये हैं, जो भुखमरी की समस्या से निजात दिलाते लगते हैं. इसमें रियायती अनाज पाने की पात्रता के लिए परिवार को आधार बनाया है, न कि व्यक्ति को. राशन कार्ड घर की सबसे बुजुर्ग महिला के नाम बनेंगे. आयकर देने वाले और गैर आदिवासी क्षेत्रों में चार हेक्टेयर सिंचित या आठ हेक्टेयर असिंचित कृषि भूमि के स्वामी इसके दायरे में नहीं आएंगे. इसके अलावा जिन परिवारों के पास शहरी क्षेत्र में एक हजार वर्ग फीट का पक्का मकान है, वे भी इस लाभ से वंचित रहेंगे. पीडीएस अनाज का गोलमाल करनेवाले अधिकारियों को दंडित करने का प्रावधान भी विधेयक में है.
इस कानून पर अमल अगली सरकार के दौरान ही होगा, इसलिए इसे चुनावी झुनझुना कहना गलत नहीं है. जरूरत खाद्य सुरक्षा के मसले को वोट के चश्मे से न देख कर, गरीबों को भोजन का सही हक देने और किसानों की माली हालत सुधारनेवाले व्यापक दृष्टिकोण की है. देश को भूख और कुपोषण से मुक्ति दिलाने के लिए गरीबों को रोजगार व न्यूनतम मजदूरी सुनिश्चित करने की जरूरत है. इसके लिए कृषि उत्पादन, भंडारण और खाद्य प्रसंस्करण की क्षमता बढ़ाने की योजनाओं को रोजगार से जोड़ना होगा.
प्रमोद भार्गव
वरिष्ठ पत्रकार
pramod.bhargava15@gmail.com