हाई कमान के बिना बिखर जाती है पार्टी
देश की जनता इस बात से भलीभांति अवगत है कि किसी भी परिवार को चलाने के लिए घर में एक मुखिया का होना अनिवार्य है. बशर्ते कि मुखिया और सदस्यों में सही तालमेल हो. तभी कोई परिवार तरक्की की राह पर आगे बढ़ सकता है. अलबत्ता, इसका पालन जीव-जंतु, पशु-पक्षी भी करते हैं. उनके क्रियाकलापों […]
देश की जनता इस बात से भलीभांति अवगत है कि किसी भी परिवार को चलाने के लिए घर में एक मुखिया का होना अनिवार्य है. बशर्ते कि मुखिया और सदस्यों में सही तालमेल हो. तभी कोई परिवार तरक्की की राह पर आगे बढ़ सकता है. अलबत्ता, इसका पालन जीव-जंतु, पशु-पक्षी भी करते हैं. उनके क्रियाकलापों को देख कर यह अनुमान लगाया जा सकता है.
ऐसी परिस्थिति में हाई कमान की संस्कृति पार्टियों में अनुचित नहीं है. इस पर किसी दल विशेष में विभेद को जन्म देने का अर्थ है, पार्टी को कमजोर करना. साथ ही स्वार्थ की बू से इनकार नहीं किया जा सकता. इस मसले पर विवाद होते रहे हैं और होना भी चाहिए. बशर्ते कि जनता के मूड को भांपते हुए बात संवैधानिक तरीके से पार्टी के भीतर सही मंच पर उठाना चाहिए. अन्यथा, जगहंसाई से बात बनती नहीं, बल्कि बिगड़ती है.
इससे पार्टी की सेहत प्रभावित तो होती ही है, जनता में भी गलत संदेश जाता है. जहां भी पार्टी सुप्रीमो को लेकर विववाद गहराया है, वहां पार्टी टूटी है और अपने मकसद से पार्टी भटक गयी है. इसका सटीक उदाहरण हो सकता है डॉ राम मनोहर लोहिया के अनुयायियों का, जो समाजवादी होने का दंभ तो भरते हैं, लेकिन किसी एक को आना नेता स्वीकारने से परहेज करते हैं. नतीजतन, आज ये कई टुकड़ों में बंटे हुए हैं.
यही कारण है कि देश में तीसरा विकल्प बनने का सपना देखने के बावजूद उनकी एका में दरार पड़ जाती है. ये अपने मकसद से भटक जाते हैं. इसका मुख्य कारण सत्ता के सर्वोच्च पद की लालसा है, जो पाश्चात्ताप पर पर जाकर समाप्त होता है. ठीक यही चीज आप में भी देखने को मिल रही है. अरविंद का तेवर स्वार्थ की पराकाष्ठा है.
बैजनाथ महतो, बोकारो