उस युवा पत्रकार को सलाम

।।विश्वनाथ सचदेव।।(वरिष्ठ पत्रकार)मुंबई में एक फोटो पत्रकार के साथ हुई बलात्कार की घटना एक जघन्य अपराध है. दिल्ली में हुए निर्भया कांड के बाद देश में असंतोष और गुस्से का जो माहौल बना था उससे लगा था कि शायद स्थिति में कोई निर्णायक-सकारात्मक बदलाव आयेगा, लेकिन कठोर कानून बनाने की बात के अलावा कुछ भी […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | August 29, 2013 2:13 AM

।।विश्वनाथ सचदेव।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
मुंबई में एक फोटो पत्रकार के साथ हुई बलात्कार की घटना एक जघन्य अपराध है. दिल्ली में हुए निर्भया कांड के बाद देश में असंतोष और गुस्से का जो माहौल बना था उससे लगा था कि शायद स्थिति में कोई निर्णायक-सकारात्मक बदलाव आयेगा, लेकिन कठोर कानून बनाने की बात के अलावा कुछ भी ऐसा नहीं हुआ जो आश्वस्त करता. कहा यह गया कि अब चूंकि लोग ज्यादा जागरूक हो गये हैं, इसलिए ये मामले सामने आते हैं. देश में हर 20 मिनट में एक बलात्कार हो रहा है. यह दर्ज मामलों का आंकड़ा है. यह कहना गलत नहीं होगा कि दर्ज न होने वाले मामलों की संख्या दर्ज होने वाले मामलों से ज्यादा है. ऐसे में उस युवा फोटो पत्रकार को सलाम, जिसने अपराधियों को सजा दिलवाने के लिए पुलिस के पास जाने का साहस किया. लेकिन उसने इससे भी बड़ी एक बात की है. उसने कहा है, ‘बलात्कार जीवन का अंत नहीं है. मैं जल्दी ही अपने काम पर लौटना चाहती हूं.’

आज बलात्कारियों को तरह-तरह की बड़ी से बड़ी सजा देने की बात की जा रही है. इसमें दो राय नहीं कि इनकी सजा ऐसी होनी चाहिए कि ऐसी आपराधिक प्रवृत्तिवाले लोगों में डर पैदा हो सके. लेकिन यह डर पर्याप्त नहीं है. बीस साल की सजा कम नहीं होती, लेकिन हमारे यहां इसकी प्रक्रिया बहुत धीमी है. बरसों लग जाते हैं. कभी-कभी दशकों लग जाते हैं. तब तक लोग सब भूलभाल जाते हैं. जनमानस पर पड़ा उसका प्रभाव भी इतना कम हो जाता है कि सजा कोई अर्थ ही नहीं रह जाता. विलंब से हुआ न्याय, न्याय नहीं होता, न्याय का नकार होता है. इसलिए कड़े कानून से नहीं, बल्कि उसका कड़ाई से और निश्चत समय-सीमा में पालन होने से बात बनेगी. सजा मिलने की निश्चतता ही अपराध करने से रोकने में मददगार हो सकती है, जो हमारे यहां नहीं हो रहा है. 1969 में भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत सजा मिलने की दर 62 प्रतिशत थी. 2010 में यह दर घट कर 40.6 प्रतिशत रह गयी थी. यदि सिर्फ बलात्कारों की बात करें तो यह प्रतिशत 27 से भी कम है.

इसके साथ ही जुड़ा है अदालतों में लंबित पड़े मामलों का किस्सा. सितंबर 2010 तक हमारी अदालतों में कुल मिला कर लगभग पौने चार करोड़ मामले लंबित थे. क्या अपराधी मन इस बात का यह अर्थ नहीं लगायेगा कि कानून से क्या डरना!

बलात्कार जैसे अपराधों के साथ एक और मानसिकता भी जुड़ी है. यह उस सामाजिक सोच का परिणाम है, जो स्त्रियों को नीची नजर से देखती है. परंपरा और संस्कृति के नाम पर हमारा पितृ-सत्तात्मक समाज महिलाओं के साथ न्याय नहीं करता. न्याय की धीमी गति, समाज में न्यायपूर्ण दृष्टि और सोच के अभाव ने एक ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी है, जिसमें महिलाएं निरंतर एक असुरक्षित माहौल में जीने के लिए बाध्य हैं. और फिर यौन संबंधों के संदर्भ में शुचिता, नैतिकता, पवित्रता जैसी धारणाओं ने तो नारी समाज का जीवन ही दूभर बना दिया है. कथित शारीरिक पवित्रता का ‘लुटना’ यदि ‘सर्वस्व लुटने’ का पर्याय बन जाये तो इस सामाजिक सोच पर सवालिया निशान लगना ही चाहिए. स्त्री की पवित्रता की बात करनेवाले पुरुष की पवित्रता के संदर्भ में चुप क्यों रह जाते हैं? इस तरह के सोच को बदलना जरूरी है.

इसी संदर्भ में किसी बलात्कार की शिकार का यह कहना महत्वपूर्ण हो जाता है कि बलात्कार जीवन का अंत नहीं है. यह एक महत्वपूर्ण सोच इसलिए है क्योंकि यह एक बीमार मानसिकता के खिलाफ युद्धघोष है. बलात्कार एक हादसा है. लेकिन ऐसा हादसा नहीं कि इसे जीवन का अंत मान लिया जाये. स्त्री और स्त्री-पुरुष संबंधों के बारे में कथित नैतिकता-अनैतिकता के बारे में एक नये तरह के सोच की जरूरत है. आखिर शर्म उसको क्यों आये जिसका बलात्कार हुआ है? शर्म उसे क्यों नहीं आये जिसने बलात्कार किया है? कानून बलात्कारी को अपराधी मानता है, लेकिन इस अपराधी को उचित सजा तभी मिलेगी जब वह समाज की निगाहों में भी अपराधी होगा.

विडंबना है कि अब तक हमारे समाज में यही सोच पल रहा है कि स्त्रियों को रात-विरात अकेले नहीं घूमना चाहिए, कि उन्हें पूरे कपड़े पहनने चाहिए, कि उन्हें किसी पुरुष संबंधी के साथ ही घर से निकलना चाहिए.. यह सब समस्या की जड़ों को न पहचान पाने का परिणाम है. आज जरूरत स्त्रियों के विरुद्ध होनेवाली हिंसा के मूल को समझने की है. उम्मीद की जानी चाहिए कि बलात्कार जैसे अपराधों के संदर्भ में मुंबई की उस फोटो पत्रकार जैसा सकारात्मक सोच पनपेगा. सजा उसे मिलेगी जो अपराधी है, उसे नहीं हो अपराध का शिकार है.

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