पुलिस पर हमला, थाने में तोड़फोड़ या अधिकारियों को बंधक बना लेने की बढ़ती घटनाएं पुलिस-प्रशासन के लिए चुनौती बन गयी हैं. शनिवार को राज्य में तकरीबन आधा दर्जन ऐसी घटनाएं अलग-अलग जिलों में हुईं. दरभंगा के बिरौल में एक नवविवाहिता की गुमशुदगी के मामले में कार्रवाई न होने पर उग्र भीड़ ने पुलिसकर्मियों को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा.
इसी तरह अरवल में एक पूर्व महिला वार्ड पार्षद की हत्या से गुस्साये लोगों ने पुलिस टीम पर रोड़े बरसाये. दोनों घटनाओं की तह में वजह एकजैसी है- कार्रवाई में लेटलतीफी और पुलिस-प्रशासन के प्रति पीड़ित समूह की नाराजगी. इसके पहले भी एफआइआर दर्ज नहीं करने, गुमशुदा की तलाश में कोताही या घटनास्थल पर देर से पहुंचने के कारण आक्रोशित लोगों ने तोड़फोड़ की है. लेकिन, ऐसी घटनाओं से पुलिस शायद ही सबक लेती है. जून, 2013 में बगहा के नौरंगिया की घटना की चर्चा प्रासंगिक है, जब एक लापता व्यक्ति की तलाश में पुलिस ने उदासीनता बरती और जब ग्रामीण उग्र हुए तो पुलिस को गोली चलानी पड़ी. पुलिस फायरिंग में छह लोग मारे गये थे. शनिवार को बिरौल में भी लोगों का गुस्सा इसी वजह से भड़का कि पुलिस ने नवविवाहिता की गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज नहीं की. उल्टा यह भी कहा कि जब लाश मिलेगी, तब कार्रवाई होगी. ये घटनाएं भरोसे के संकट की ओर इशारा कर रही हैं और समय रहते इसमें गंभीरता से हस्तक्षेप की जरूरत है.
सरकार से लोगों की अपेक्षाएं बढ़ी हैं और वे अपराधियों के खिलाफ त्वरित कार्रवाई की अपेक्षा रखते हैं. स्थानीय प्रशासन व पुलिस को भी अपनी मानसिकता और कार्यशैली को जनता की इन्हीं अपेक्षाओं के अनुरूप ढालना होगा. पुलिस-प्रशासन और आम जनता के बीच अविश्वास की खाई गहरी होगी तो यह लोकतंत्र के लिए नुकसानदेह होगा. भरोसे के संकट का हल संवाद में ढूंढ़ने की जरूरत है. स्थानीय प्रशासन और जनता के बीच संवाद का सिलसिला जितना तेज होगा, एक-दूसरे के प्रति भरोसा उतना ही बढ़ेगा. पुलिस को अपनी कार्यशैली को लेकर ज्यादा सचेत रहने की जरूरत है, ताकि कतई ऐसा संदेश न जाये कि वह जनता के विरुद्ध खड़ी है. इसके लिए पुलिस को मामले की गंभीरता के अनुरूप त्वरित कार्रवाई करनी होगी.