दूसरी दुनिया के साथ यह दुनिया भी संवारें

मैं बहुत परेशान हूं. परेशानी भी ऐसी कि किसी से कहो तो उल्टे मुङो ही फटकारने लगता है. जिस मोहल्ले में रहता हूं वहां किसी टेंपो या रिक्शे पर लाउडस्पीकर लगा कर आ धमकने वालों की बाढ़ सी आयी रहती है. ये लोग फिल्म, कपड़ों की सेल या सरकारी योजना का प्रचार करनेवाले नहीं, बल्कि […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | April 13, 2015 5:49 AM

मैं बहुत परेशान हूं. परेशानी भी ऐसी कि किसी से कहो तो उल्टे मुङो ही फटकारने लगता है. जिस मोहल्ले में रहता हूं वहां किसी टेंपो या रिक्शे पर लाउडस्पीकर लगा कर आ धमकने वालों की बाढ़ सी आयी रहती है. ये लोग फिल्म, कपड़ों की सेल या सरकारी योजना का प्रचार करनेवाले नहीं, बल्कि धर्मस्थलों की तामीर के लिए चंदा मांगनेवाले होते हैं. लोग घरों से निकलते हैं और पचास, सौ और कभी-कभी तो पांच सौ के नोट लहराते हुए उस टेंपो तक पहुंचते हैं. टेंपो के कोने में छिपे एक शख्स का हाथ बाहर की ओर निकलता है और एक छोटी सी रसीद दानी को थमा दी जाती है.

हमें बचपन से सिखाया गया है कि दाएं हाथ के दान का पता बाएं हाथ को भी नहीं चलना चाहिए. लेकिन यहां ठीक उलटा होता है. रसीद देनेवाला शख्स चीख-चीख कर, उस दानी के दान का ढिंढोरा पीटता है और बताता है कि फलां साहब ने इतने रुपये इस नेक काम के लिए दिये हैं. दानी के चेहरे पर उभरी गर्व भरी मुस्कान क्या बयां करती हैं, मैं नहीं समझ पाता. यह आलम कोई एक दिन का नहीं, बल्कि न्यूज चैनलों की तरह 24×7 का है. आज की स्वार्थी दुनिया में कोई दान-पुण्य करे, यह खुशी की बात है. पर अफसोस इस बात का होता है कि इन दानियों की नजर कभी अपने मोहल्ले की दुर्दशा की ओर नहीं जाती है.

मोहल्ले की सड़क खराब पड़ी है, नाली में पानी भर जाने के कारण बीच सड़क पर गंदे पानी और कीचड़ का जमाव दिन-रात रहता है, सप्लाई वाटर के पाइप फटे हुए हैं, लेकिन यह सब देख कर भी अनजान बने रहना आदत हो गयी है. इनसे हमारा क्या वास्ता साहब! यह काम तो सरकार का है. और वैसे भी इस फानी दुनिया में घर और सड़क बनाने का क्या फायदा, एक दूसरी दुनिया है, वहां के लिए दान करो.. यह सोच जेहन में घर कर गयी है. जब मोहल्ले के लोगों से मोहल्ले की समस्याओं पर बात करना शुरू करो तो लोग धीरे-धीरे वहां से सरकने में भलाई समझते हैं. अच्छा निकलता हूं, बच्चे को स्कूल भेजना है.. ठीक है भाई, जरा बाजार से सब्जी लानी है..

चलता हूं साहब, आज ऑफिस थोड़ा पहले पहुंचना है जैसे बहाने सुनने को मिलते हैं. कभी-कभी हां-हां जरूर यह काम तो होना चाहिए जैसे सांत्वना भरे वाक्यों का सहारा मिल जाता है. अगर कोई दूसरी दुनिया से पहले इस दुनिया को सुधारने की बात करते हुए, चंदा देने से मना करे, तो उसे नास्तिक या अधर्मी समझा जाता है. मेरे बारे में भी पास-पड़ोस और रिश्तेदारों का कुछ ऐसा ही ख्याल है. खैर, जिसकी जैसी सोच. अगर धर्मस्थल के लिए दान जरूरी है, तो क्या मोहल्ले की सड़क-नालियों और पास-पड़ोस की साफ -सफाई का ख्याल रखना जरूरी नहीं है? अक्सर कुछ लोग मुङो धार्मिक ज्ञान देने चले आते हैं. मैं उन्हें ‘घर से मस्जिद है बहुत दूर, चलो यूं कर लें किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाये..’ सुनाते हुए निकल लेना ही बेहतर समझता हूं.

शिकोह अलबदर

प्रभात खबर, रांची

shukohalbadar82@gmail.com

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