चुनावी और परिवर्तनकामी राजनीति
परिवर्तनकामी राजनीति को चुनावी राजनीति लील जाती है. जेपी आंदोलन से जनता पार्टी का जन्म हुआ और अन्ना आंदोलन से ‘आप’ का. दो-तीन वर्ष के भीतर जनता पार्टी में बिखराव हुआ. दिल्ली में अप्रत्याशित जीत के बाद ‘आप’ बिखर रही है. भारत में व्यवस्था विरोधी सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों का अंत व्यवस्था से सहयोग में होता रहा […]
परिवर्तनकामी राजनीति को चुनावी राजनीति लील जाती है. जेपी आंदोलन से जनता पार्टी का जन्म हुआ और अन्ना आंदोलन से ‘आप’ का. दो-तीन वर्ष के भीतर जनता पार्टी में बिखराव हुआ. दिल्ली में अप्रत्याशित जीत के बाद ‘आप’ बिखर रही है.
भारत में व्यवस्था विरोधी सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों का अंत व्यवस्था से सहयोग में होता रहा है. आम आदमी पार्टी की आंतरिक कलह के बाद तरह-तरह के विचार आये हैं, जिनमें एक संजय जोशी का है, जो अमेरिका के नार्दर्न एरिजोना यूनिवर्सिटी में इतिहास के प्रोफेसर हैं. उन्होंने अपने लेख, ‘दि आप एंड दि 1935 पैरलल’ (दि हिंदू, 2 अप्रैल, 2015) में 1935 और आप में इतनी सुस्पष्ट समानांतरता देखी है कि स्वयं उनके शब्दों में इसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती. 80 वर्ष में दुनिया बदल चुकी है. भारत भी कई करवटें ले चुका है. फिर भी 2015 और 1935 में या तब की कांग्रेस और आज के ‘आप’ में क्या-कैसी समानांतरता है, इसे देखना जरूरी है.
अगस्त 1935 में ब्रिटिश संसद ने ‘गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट, 1935’ पारित किया था, जिसे लेकर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के भीतर असहमतियां थीं. तीस के दशक के आरंभ में ब्रिटिश सत्ता ने यह समझ लिया था कि भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को दमन से दबाया नहीं जा सकता. उसने इस आंदोलन को स्थायी रूप से कमजोर करने के लिए कांग्रेस में फूट डालने की नीति पर कार्य करना आरंभ किया. 1935 का एक्ट कांग्रेस के एक हिस्से को औपनिवेशिक प्रशासन में समाहित करने के लिए बना. इस एक्ट के द्वारा विभिन्न प्रांतों और राजाओं-महाराजाओं को एक साथ मिला कर भारत को गणतंत्र का दर्जा प्रदान किया गया. 1935 में नेहरू, सुभाषचंद्र बोस, कांग्रेस समाजवादी, वामपंथी में से कोई भी सत्ता में हिस्सेदारी नहीं चाहते थे. कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में नेहरू ने यह कहा भी था कि सत्ता में साङोदारी से कांग्रेस किसी-न-किसी रूप में साम्राज्यवादी सत्ता का हिस्सा बनेगी, जनता के शोषण में अंगरेजों का सहयोग करेगी और जनांदोलनों का क्रांतिकारी चरित्र समाप्त हो जायेगा.
1935 के कानून से बने नये विधान को रजनी पाम दत्त ने ‘तीसरा साम्राज्यवादी विधान’ कहा है, नेहरू ने 1935 की शर्तो को ‘ए न्यू चैप्टर ऑफ स्लेवरी’ कहा था, सुभाषचंद्र बोस ने इसे भारत में बने रहने का ब्रिटिशों का नया तरीका माना था और भारत के वायसराय लिलियगो ने 1935 के अधिनियम को ‘भारत पर अंगरेजों का प्रभुत्व बरकरार रखने का बढ़िया तरीका’ बताया. ‘हमारा तो यही प्रयास था कि जब तक संभव हो, भारत ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा बना रहे.’ इस समय कांग्रेस की दो धाराएं थीं. एक उदारवादियों, संविधानवादियों और नरमपंथियों की धारा थी, दूसरी ओर जनांदोलनों से जुड़े लोग थे. राष्ट्रवादी आंदोलन को कमजोर करने के लिए बनाये गये इस अधिनियम का साथ उदारवादी, संविधानवादी और नरमपंथी ने दिया. संजय जोशी यह मानते हैं कि जिस प्रकार 1935 में व्यवहारवादी (प्रैगमेटिस्ट) और आदर्शवादी (आइडियलिस्ट) में लड़ाई थी, उसी प्रकार की लड़ाई आज ‘आप’ में है. उस समय व्यवहारवादी की जीत हुई थी. वे इतिहास में हुई 1935 की अनदेखी को सामने रखते हैं. 1935 में कांग्रेस के भीतर के संघर्ष के बाद भी कांग्रेस का विभाजन नहीं हुआ. कांग्रेस का चरित्र हमेशा के लिए बदल गया. कांग्रेस 1937 के चुनाव में शामिल हुई. उस समय हुई कांग्रेस की बड़ी और अप्रत्याशित जीत से यह लगा था कि व्यवहारवादी सही हैं. ब्रिटिश भारत के 11 प्रांतों में से आठ में कांग्रेस ने अपनी सरकार गठित की थी. चुनावी विजय से कांग्रेस में सुखबोध (यूफोरिया) था. पर, कुछ समय बाद ही इसका नतीजा सामने आया. ‘सुशासन’ के लिए कांग्रेसी मंत्रियों ने राजद्रोह के औपनिवेशिक कानूनों का उपयोग स्वतंत्र अभिव्यक्ति को रोकने के लिए किया. कांग्रेस द्वारा किये गये कानून-व्यवस्था के वादे की सराहना साम्राज्यवादियों ने की.
भगत सिंह ने 1929-30 में ही यह कहा था कि कांग्रेस ब्रिटिश सत्ता से सहयोग करेगी. इंसान का इंसान से भाईचारा वाला गीत भीड़ में सुनाना, उसे प्रभावित-सम्मोहित करना आसान है, पर यह भाईचारा तब तक कायम नहीं हो सकता, जब तक साम्राज्यवाद और उसके सहयोगियों का अंत नहीं हो जाता. अरविंद, योगेंद्र और प्रशांत के बीच ही भाईचारा कायम न रहा. साम्राज्यवाद से समझौते की नीति कांग्रेस ने 1935 में कभी समाप्त नहीं की. 1935 में कांग्रेस में आदर्शवादियों की, आंदोलनकारियों की हार हुई थी. कांग्रेस ने फरवरी 1937 में संपन्न चुनाव के बाद साम्राज्यवादी संविधान के तहत काम किया. 1947 के बाद आदर्शवादी कांग्रेसी, समाजवादी-वामपंथी सभी सत्ता से जुड़े.
‘आप’ की तुलना जनता पार्टी से भी की जा रही है. जयप्रकाश नारायण और अन्ना में अंतर है. अन्ना और केजरीवाल में भी अंतर है. स्वंतत्र भारत में सत्ता-व्यवस्था के विरुद्ध नक्सलबाड़ी आंदोलन (मुख्यत: किसान आंदोलन) जन्मा. बाद में यह कई धड़ों में बंटा. प्रत्येक आंदोलन का हश्र विघटनकारी क्यों होता है? विघटनकारी शक्तियां साम्राज्यवाद से जुड़ी होती हैं. कांग्रेस की पूर्ण स्वाधीनता अपूर्ण स्वाधीनता में बदली, नक्सलबाड़ी आंदोलन व्यवस्था-परिवर्तन में कारगर न हुआ, जयप्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति अनेक भ्रांतियों का शिकार हो गयी. आंदोलन से पार्टी का जन्म और पार्टी का शासक दल बनने के बाद आंदोलन जिन उद्देश्यों और लक्ष्यों के साथ खड़ा हुआ था, वे लक्ष्य-उद्देश्य बदल जाते हैं. चुनावी राजनीति में विजय के उपरांत सभी राजनीतिक दल व्यवस्था का अंग बन जाते हैं. परिवर्तन कामी राजनीति को चुनावी राजनीति लील जाती है. जेपी आंदोलन से जनता पार्टी का जन्म हुआ और अन्ना आंदोलन से ‘आप’ का. दो-तीन वर्ष के भीतर जनता पार्टी में बिखराव हुआ. दिल्ली विधानसभा (2015) की अप्रत्याशित जीत के बाद ‘आप’ बिखर रही है. चुनाव में जीत पर गर्वोन्मत्त होना नाशकारी है. 1984 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 400 से अधिक सीटें मिली थीं. पांच वर्ष बाद कांग्रेस औंधे मुंह गिरी. अब व्यवस्था बदलने वालों ने (आप ने) लोकपाल, पीएसी, राष्ट्रीय कार्यकारिणी, अनुशासन समिति सब बदल दी.
हिंदुत्व की राजनीति की काट के लिए जिस वैकल्पिक राजनीति की आवश्यकता की बात की जाती है, क्या वह असंतुष्टों के मौन से प्रखर होगी? क्या दलों में आंतरिक लोकतंत्र की लड़ाई से देशों में लोकतंत्र की लड़ाई कमजोर होगी? आंदोलन, आंदोलन से जन्मी पार्टी, पार्टी की चुनावी जीत और सत्ता-प्राप्ति के बीच के रिश्ते आज अधिक विचारणीय हैं. 1935 और ‘आप’ में अगर कोई समानांतरता है, तो इसकी गहरी जड़ों की पड़ताल जरूरी है. साम्राज्यवाद और पूंजीवाद से सहयोग और संघर्ष पर ही किसी भी आंदोलन, राजनीतिक दल और सरकार का भविष्य निर्भर करता है.
रविभूषण
वरिष्ठ साहित्यकार
delhi@prabhatkhabar.in