राजेंद्र तिवारी
कॉरपोरेट एडिटर
प्रभात खबर
गीता को पाठ्यक्रम में रख देने, पाठ्यक्रम में से किसी को हटा देने और किसी को जोड़ देने आदि से कुछ नहीं होनेवाला. कोई ‘मेक इन इंडिया’ हमें विकसित राष्ट्रों की श्रेणी में नहीं खड़ा कर पायेगा, यदि हम अपने बच्चों की समस्याओं को हल न कर पाये तो.
पिछले हफ्ते एक मित्र की फेसबुक वॉल पर पोस्ट देखी. इनका परिवार लखनऊ में रहता है. पोस्ट आप भी पढ़ें- अभी घर पर बात हुई. पता चला कि आज छोटे साहेबजादे, जो मात्र क्लास 8 में हैं, के एक सहपाठी मित्र ने स्कूल में ही छत से कूद कर आत्महत्या कर ली. आज ही रिजल्ट मिला था.
लड़का पास हो गया था. फिर क्यों? हृदय विदारक. इतना छोटा बच्चा और इतना एक्स्ट्रीम कदम! इतना छोटा बच्चा और आत्महत्या! ये क्या है? किसका दोष है? गला काट प्रतिस्पर्धा? सामाजिक दबाव? शिक्षा पद्धति? हमारी अपेक्षाएं? क्या अन्य देशों में भी बच्चों पर इतना ही दबाव है? इस अंधी दौड़ में बचपन तो कब का खो गया लगता है. ऐसे विकास से तो ना विकास अच्छा.
पटना के स्कूली बच्चों के लिए फेसबुक पर चल रहे एक कनफेशन पेज की भी एक पोस्ट पढ़ें- टुडे मैंने कुछ ऐसा देखा, जिसको देख कर मुङो विश्वास नहीं हुआ. इनफैक्ट मुङो अभी भी यकीन नहीं हो रहा है. टुडे आइ सॉ माय मॉम विद अनदर मैन. आइ एम फ्रॉम.. मेरे डैड पटना में रहते हैं और मैं भी टेंथ के बाद यहीं पढ़ाई करने आया हुआ हूं. बट अभी हमारे एग्जाम्स ओवर हो चुके हैं, सो अभी मैं .. में ही हूं. बट मेरे पापा पटना में ही हैं.
एअली जब मैं आज सुबह में उठा तो एक अंकल आये हुए थे. वे मेरे पापा के क्लोज फ्रेंड हैं. मैं सुबह उठ कर बाहर निकला तो आइ सॉ कि उन्होंने मेरी मॉम के हाथों को पकड़ा हुआ है. आइ कांट एलैबोरेट थिंग्स प्रॉपरली, बट मैंने ऐसा कुछ देखा, जिसे देख कर मुङो इतना गुस्सा आया कि मैं वापस पटना आ गया. ये कैसे हो सकता है, मुङो कुछ समझ में नहीं आ रहा है. मैं अब वापस मॉम के पास .. नहीं जाना चाहता.
हमारे अखबार में छप रहे कॉलम ‘सक्सेस सीढ़ी’ के इ-मेल पर आया यह मेल भी पढ़ें- आइ एम ए हॉस्टलर स्टूडेंट ऑफ स्टैंडर्ड ट्वेल्थ इन ए.. स्कूल, झारखंड. माय नेटिव प्लेस इज .. ए स्माल विलेज इन .. डिस्ट्रिक्ट, बिहार. माय फादर इज ए फार्मर. ही इज पेइंग मी रुपीज 13,000 पर मंथ फॉर माय स्टडीज.
आउट ऑफ माय 6 सिस्टर्स-ब्रदर्स, आय एम द ओनली सन एंड द यंगेस्ट वन. ओनली आय गॉट द अपाच्यरुनिटी फॉर गेटिंग गुड एजूकेशन. हाऊ माय फादर इज एफर्टिग सच ए लार्ज एमाउंट. माय फैमिली एलांगविद माय स्कूल टीचर्स, प्रिंसिपल मैम, डाइरेक्टर सर, एक्सपेक्ट ए लॉट फ्रॉम मी. माय फैमिली लव्ज मी वेरी मच. बट व्हाय आय डोंट रेस्पेक्ट देम.. आय डोंट नो. आय डोंट इवेन थिंक एबाउट गोइंग होम टू मीट माय फैमिली.
लास्ट मंथ, आय डोंट टॉक विद देम फॉर 20 डेज.. मेनी टाइम्स आय हैव ट्राइड अनसक्सेसफुल अटेम्प्ट ऑफ कमिटिंग सूसाइड एंड मेनी मोर थिंग्स अनयूजुअल हैपेन टू मी. आय डोंट टेक कीन इंटरेस्ट इन स्टडीज.. आय हैव टारगेटेड 98+ मार्क्स इन माय ट्वेल्थ बोर्ड. आय वांट टू स्टडी, बट मेनी थिंग्स डू नॉट लेट मी टू स्टडी. आय वांट टू बिकम ए गुड पर्सन.. आय वांट टू स्टडी नॉट फॉर मी, बट फॉर माय फैमिली एंड टीचर्स एंड प्रिंसिपल मैम. प्लीज सजेस्ट मी हाऊ आय कैन मेक ए हेल्दी रिलेशनशिप विद माय फैमिली अगेन एंड कैन गीव मोर एंड मोर टाइम इन स्टडीज..
इन तीन पोस्ट्स को यहां देने के पीछे मेरा उद्देश्य यह है कि हम जानें तो कि मौजूदा परिवेश में हमारे बच्चे किस मन:स्थिति से गुजर रहे हैं. पहली पोस्ट में जिस बच्चे का जिक्र है, वह आठवीं कक्षा में लखनऊ के एक बड़े स्कूल में पढ़ता था. वह रिजल्ट लेने स्कूल तो गया, लेकिन क्लास टीचर के पास जाने के बजाय छत पर गया और नीचे कूद गया.
दूसरा बच्चा भी जिस अलझन में है, उसे शायद ही किसी के साथ साझा कर पाये और तीसरे बच्चे की कहानी यह है कि वह तमाम अपेक्षाओं के चलते सबसे नफरत-सा करने लगा है. क्या हमारे परिवार, हमारा समाज, हमारी सरकार, हमारी शिक्षा व्यवस्था की चिंता के केंद्र में हमारे बच्चों की ये उलझनें हैं और क्या इनसे निपटने का कोई रास्ता बनाने की कोशिश कहीं हो रही है? पक्के तौर पर नहीं हो रही है. तो आप स्वयं कल्पना करें कि यह नयी पीढ़ी कहां जायेगी?
परिवार में समय नहीं है. माता-पिता बच्चे के लिए तमाम सुविधाएं मुहैया करा कर समझ रहे हैं कि उन्होंने कर्तव्य पूरा कर दिया. शहरों में पास-पड़ोस का कल्चर खत्म हो चला है.
संयुक्त परिवार हैं नहीं कि ढेर सारे बच्चे मिल-जुल कर रह रहे हों. इंटरनेट और मोबाइल सबको अकेला करता जा रहा है और बच्चों को भी. मोबाइल या कंप्यूटर गेम, इयरफोन लगा कर म्यूजिक सुनना, फेसबुक पर चैट, व्हाट्सएप्प की दुनिया में शेयरिंग. ये सब चीजें बच्चों को अंतरमुखी बनने की ओर धकेल रही हैं. ऊपर से गला काट कंप्टीशन का दबाव, घर से भी और स्कूल में भी. क्या सरकार, समाज, स्कूलों का ध्यान इस तरफ है?
कैसी उलटबांसी है कि हम बात तो विश्वगुरु होने, योगगुरु होने, दुनिया में ज्ञान का स्नेत बनने की करते हैं, लेकिन अपने बच्चों की समस्याओं और मन:स्थिति हमारे लिए कतई चिंता का विषय नहीं होती. दूसरी तरफ, विकसित देशों में बच्चों के विकास पर विशेष जोर दिया जाता है, सरकार व समाज, दोनों के स्तर पर.
दो-तीन साल पहले ब्रिटेन में बच्चों की स्थिति को लेकर अध्ययन कराया गया था. इस अध्ययन में कई चिंताजनक पहलू सामने आये, तो ब्रिटेन की सरकार ने अभियान के स्तर पर जाकर इन पर काम किया. अपने शिक्षकों को तद्नुसार ट्रेनिंग दी, जिससे पेरेंट-टीचर मीटिंग में इन पर प्रभावी तरीके से बात हो सके और इन पहलुओं से निबटा जा सके.
अब हमारे यहां देखिये, सरकारी आंकड़ा चीख-चीख कर कह रहा है कि देश में 50 फीसदी से ज्यादा प्राइमरी शिक्षक बच्चों को पढ़ाने की योग्यता ही नहीं रखते, पर क्या किसी ने सुना कि केंद्र या राज्य सरकार ने कहीं कोई चिंता जतायी हो? क्या किसी ने सुना कि केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री या किसी राज्य के शिक्षा मंत्री का ऐसा बयान, जिसमें इस स्थिति को गंभीर माना गया हो?
गीता को पाठ्यक्रम में रख देने, फलां की जगह फलां को इतिहास में रख देने, पाठ्यक्रम में से किसी को हटा देने और किसी को जोड़ देने आदि से कुछ नहीं होनेवाला. कोई ‘मेक इन इंडिया’ हमें विकसित राष्ट्रों की श्रेणी में नहीं खड़ा कर पायेगा, यदि हम अपने बच्चों की समस्याओं को हल न कर पाये तो.