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अंगरेजों के कानून से मुक्ति

।।शंभूनाथ शुक्ल।।(वरिष्ठ पत्रकार)बहुप्रतीक्षित भूमि अधिग्रहण एवं पुनर्वास बिल को लोकसभा ने कुछ संशोधनों के साथ पास कर दिया है. ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने इसके लिए बड़ी मेहनत की थी. यहां तक कि सदन में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने भी इसके लिए रमेश की तारीफ की. जयराम रमेश ने तृणमूल कांग्रेस के […]

।।शंभूनाथ शुक्ल।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
बहुप्रतीक्षित भूमि अधिग्रहण एवं पुनर्वास बिल को लोकसभा ने कुछ संशोधनों के साथ पास कर दिया है. ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने इसके लिए बड़ी मेहनत की थी. यहां तक कि सदन में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने भी इसके लिए रमेश की तारीफ की. जयराम रमेश ने तृणमूल कांग्रेस के सांसद सौगत राय के इस संशोधन, कि किसानों की पूर्ण सहमति के बाद ही भूमि अधिग्रहण हो, पर कहा कि राज्य सरकार चाहें तो शत-प्रतिशत सहमति के बाद ही अधिग्रहण करें या न करें.

हालांकि सरकार इस बिल को अगर फूड सिक्योरिटी बिल के पहले लाती तो बेहतर रहता. फूड सिक्योरिटी की गारंटी तो आप तभी दे सकते हैं, जब किसानों की भूमि के अधिग्रहण पर कोई विवेकसम्मत राय कायम हो जाये. अभी जिस रफ्तार से विकास के नाम पर भूमि अधिग्रहण कर रहे हैं, उससे महानगरों की सीमा के 50 किमी के दायरे में आनेवाली सारी कृषियोग्य जमीनें शहरी विस्तार नीति का शिकार हो गयी हैं. हालत यह है कि दिल्ली, कोलकाता, मुंबई, बेंगलुरु, चेन्नई, हैदराबाद आदि शहरों का छोर तक नहीं पता चलता. पिछले दस सालों में शहरों का दायरा और तेजी से बढ़ा है. खास कर जब से एनआरआइ ने यहां जमीनों में निवेश करना शुरू किया है, शहरी जमीनों के भाव आसमान चढ़ गये हैं.

अभी ज्यादा वक्त नहीं गुजरा है जब राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली की सीमा के बाद से ही गांव शुरू हो जाते थे और चारों तरफ गन्ने व तिलहन की फसलें लहलहाती थीं. पर अब वहां बहुमंजिली इमारतें खड़ी हैं. हालत यह है कि एक तरफ यूपी में गाजियाबाद, हापुड़, मेरठ व गौतमबुद्ध नगर तक की सारी जमीनों को विकास प्राधिकरणों और प्राइवेट बिल्डर्स ने ले लिया है, वहीं दूसरी ओर हरियाणा के गुडगांव, रेवाड़ी, बहादुरगढ़, फरीदाबाद, पलवल तथा सोनीपत तक दिल्ली के बिल्डर पहुंच गये हैं. दिल्ली का पूर्वी व दक्षिण-पूर्वी इलाका यूपी से घिरा है तथा पश्चिम, उत्तर व दक्षिण हरियाणा से. यहां की जमीनें किसानों ने खुशी-खुशी बेच दीं, क्योंकि उनकी जमीनों का इतना पैसा उन्हें मिला, जिसकी उन्होंने कल्पना नहीं की थी. लेकिन किसान के पास किसानी के अलावा और कोई हुनर तो होता नहीं, इसलिए जमीनों से मिले मुआवजे को उन्होंने कहीं निवेश नहीं किया और कुछ दिन ऐश करने के बाद पता चला कि उनके पास परिवार चलाने का भी जरिया नहीं बचा. इसीलिए सरकार अब यह बिल लायी है.

5 अगस्त, 2011 को लोकसभा में इस बिल का प्रारूप रखा गया था, जिसे पास होने में पूरे दो साल लग गये. इस बिल के प्रावधान यकीनन उत्साहजनक हैं. यह 1894 के भूमि अधिग्रहण कानून और बाद में हुए संशोधनों को पलट देगा. अभी सरकार ने शहरीकरण के चक्कर में किसानों से उनकी जमीन का मौरूसी हक तक छीन रखा था. 1894 में ब्रिटिश अधिकारियों को भारत में रेलों और सड़कों का जाल बिछाने व आर्मी कैंट बनाने के लिए बड़े पैमाने पर जमीनों के अधिग्रहण की जरूरत महसूस हुई और तब यह कानून बनाया गया था. यह कानून भी ईस्ट इंडिया के 1824 वाले बंगाल रेवेन्यू एक्ट का ही विस्तार था. इसके बाद से कई बार इसमें बदलाव की कोशिश की गयी, पर इस कानून के मूल स्वरूप में कोई बदलाव नहीं हो सका. जस्टिस आनंद नारायण मुल्ला की सदारत में बनी कमेटी की रिपोर्ट आज तक धूल चाट रही है. इसके पहले कभी भी कृषि योग्य जमीन का सरकार ने हस्तांतरण नहीं किया था. चाहे वे मुगल रहे हों या अन्य रजवाड़े, वे अपने किले अथवा लश्करगाह जंगलों में बनवाते थे.

कृषियोग्य भूमि का अधिग्रहण अंगरेजों के समय से शुरू हुआ. आजादी के बाद से जब शहरों का विस्तार शुरू हुआ, तो 1894 का यह कानून राज्य सरकारों के लिए हितकर हुआ. पहले तो म्युनिस्पैलिटी एक्ट के तहत जमीनों का अधिग्रहण होता रहा, लेकिन 1962 के बाद से विकास प्राधिकरणों ने नगर पालिकाओं से यह अधिकार छीन लिया और वे अपनी सुविधा से कृषि योग्य जमीन का अधिग्रहण करने लगे. इसमें कोई चुनी हुई संस्था नहीं, बल्कि सीधे राज्य सरकार जुड़ी हुई थी. शहरी लोगों को रिहायशी जमीन व मकान उपलब्ध कराने के लिए राज्य सरकारें खुद बिल्डर के रोल में आ गयीं और वे भू माफिया की तरह व्यवहार करने लगीं. 1971 का 25वां संशोधन तो और भी किसान विरोधी था. इसके तहत किसी भी कृषियोग्य जमीन को चिन्हित कर जिला अधिकारी या कलेक्टर धारा 4 के तहत उसे अधिग्रहीत करने की अधिसूचना जारी करता है. फिर 4 ए के तहत उस जमीन पर आपत्तियां मंगायी जाती हैं और एक महीने के भीतर धारा 6 लाकर उस पूरी जमीन का अधिग्रहण हो जाता है. मुआवजे के लिए प्रदेश सरकार जो रेट तय करती है, वही दिया जाता है. भले ही उस जमीन का बाजार मूल्य सरकारी रेट से बहुत ज्यादा हो. 1978 में 44 वां संशोधन विधेयक लाया गया और उसने किसानों को धारा 31 के अनुच्छेद 19-1 एफ के तहत सुप्रीम कोर्ट जाने के रास्ते भी बंद कर दिये.

नये प्रस्तावित कानून के तहत सरकार सिर्फ सार्वजनिक कामों के लिए कृषियोग्य भूमि का अधिग्रहण करेगी और अधिग्रहीत जमीन पर यदि पांच साल तक काम नहीं शुरू किया गया तो वह जमीन उसके मूल मालिक को वापस मिल जायेगी. यही नहीं, जिस दर से जमीन का रेट बढ़ेगा किसान आनेवाले बीस साल तक उसके बदले में रॉयल्टी पाने का अधिकारी होगा. रिहायशी उद्देश्य के लिए सरकार पाइवेट बिल्डरों को जमीन नहीं देगी.यह कानून बनने पर कृषियोग्य जमीन की काफी हद तक सुरक्षा हो सकेगी. ऐसा करके ही हम खाद्य सुरक्षा गारंटी पर अमल कर सकते हैं. खाद्य सुरक्षा गारंटी को खाद्यान्न आयात के दम पर ज्यादा दिन नहीं चलाया जा सकता. इस समय जब रुपया डॉलर के मुकाबले काफी कमजोर हो रहा है, खाद्यान्नों का आयात भी किस दम पर किया जायेगा?

मालूम हो कि उत्तर प्रदेश में जब यमुना एक्सप्रेस-वे बनना शुरू हुआ, तो सरकार ने जेपी ग्रुप को न सिर्फ नोएडा से आगरा तक छह लेन की सड़क बनाने के लिए जमीन उपलब्ध करायी, बल्कि उसके आसपास की जमीन भी ग्रुप को होटल, मॉल व आवासीय परिसर बनाने के लिए लीज पर दे दी. किसानों को इसमें ठगा गया, उन्हें करार नियमावली उत्तर प्रदेश के तहत न के बराबर मुआवजा दिया गया, जमीन के बदले न जमीन दी गयी और न ही अगले बीस वर्षो तक मुआवजा लेने की सुविधा. अप्रैल-मई, 2011 में ग्रेटर नोएडा जिले के भट्ठा पारसौल में किसानों ने अधिग्रहीत जमीन के मुआवजे को लेकर आंदोलन किया था.

आंदोलन दबाने के लिए मायावती सरकार ने पुलिसिया कार्रवाई की, जिसमें दो किसान तो मौके पर ही मारे गये, एक ने बाद में दम तोड़ दिया था. आंदोलन फैलने पर कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी भट्ठा पारसौल गये और किसानों को आश्वस्त किया था कि उनकी सरकार जल्द ही भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन करेगी. अब मौजूदा सरकार का कार्यकाल एक साल से भी कम का बचा है. इसलिए भूमि अधिग्रहण और पुनर्वास बिल को पास कराना उसके लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया था.

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